Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

View full book text
Previous | Next

Page 415
________________ ३०४ पुरुषार्थ सिरपुपाय (३) आर्जवधर्म-सरलताका होना, कुटिलता या मायाचारका छूटना आर्जव कहलाता है। मायाकषायके अभावमें यह प्रकट होता है। यह गुण बड़ा उपकार। है । इसके हर दिना , ऋजुगति ( सोधापन ) नहीं होती, हमेशा टेडो-मेड़ो तियंचगति होती रहती है, अस्तु । सरलता प्राप्त अवश्य करना चाहिये । निश्चयसे आत्मस्वरूपके प्रति सरलता ( सोधा उपयोगका जाना) सम्यग्दृष्टिके ही होती है । (४) शोध धर्म-पवित्रता या निर्लोभताका होमा कहलाता है अथवा पवित्रता या वीतरागता प्राप्त होना शीच धर्म है। यह लोभ कमायके अभाव में होता है। यह अन्तरंग और बहिरंग दो तरहका होता है । (१) अन्तरंगशौच, लोन कायका छूटना है और ( २) बहिरंगशौच, शरीर, वस्त्र, बर्तन, खानपान आदिको शुद्धता करना है । यथायोग्य दोनों प्रकारका शौच धर्म पालना कर्तव्य है, अस्तु । सम्यग्दर्शनके प्राप्त हुए विना पवित्रता नहीं आती यह निश्चय है या सत्य है। (५) सत्यधर्म-महाझूठ-कठोर-अचिकर-दुःखकर, निंदनीय, पाप उत्पादक वचनोंका त्याग करनेसे पलता है। यह सामान्यतः कषायों व नोकषायोके अभाव में या मन्दोदयमें होता व पलता है। असत्य बोलना महान् अपराध है। तीव्र पापबंधका कारण है, अस्तु । चार तरहका असत्य होता है वह वर्जनीय है । लक्षण पहिले पांच पापोंके प्रकरणमें बतलाया जा चुका है श्लोक नं० ९१-२२ आदिमें देखना चाहिए। (६) आकिञ्चन्यधर्म-अन्तरंग बहिरंग परिग्रहके छूट जाने पर होता है अर्थात् किंचित् भो परिग्रह इसके होने पर नहीं रहता-निष्परिग्रहता हो जाती है। इसके हुए बिना मुक्ति नहीं । होती यह नियम है । अ+ किंचन अर्थात् पासमें कुछ भी नहीं रखना या रहना, अकिंचनवस या धर्म कहलाता है। (७) तपधर्म-इच्छाओंके रोकनेको तप कहते हैं 1 जबतक इच्छाएँ अर्थात् राग आदि दूर न हों तबतक तप नहीं होता। इसके १२ बारह भेद हैं जो पेश्तर इलोका नं० १९८ व १९९ में बतला दिये गये हैं। उनसे संवर व निर्जरा होतो है ! इसका सम्बन्ध मुख्यतया मोहनीयकर्म से है । (८) त्यागधर्म-करुणाभावसे पात्रादिकोंको ( धर्मात्मा जीवोंको ) दान देना ( आहारऔषधि-शास्त्र-वसतिकाका उत्सर्ग करना, मेर मिला देना) त्यागधर्म कहलाता है। इसमें अन्तरंगदान ( त्याग) लोभका छूटना और बहिरंगदान, बाह्म चीजोंसे सम्बन्ध छोड़ना है यह भेद है. दोनों करना चाहिये। आत्माका स्वरूप 'एकत्वविभक्तरूप है' वैसा ही हो जाना त्यागधर्म है। (१) संयमधर्म---इन्द्रिय व कषायोंका नियंत्रण करना ( वशमें करना) असमर्थ या व्यर्थ के कार्योंका छोड़ना, प्रतादिका धारण करना, समितियोंका पालमा यह संयम कहलाता है। यह गुण आत्माका है जो कर्तव्य है। संयमके इन्द्रियसंयम प्राणिसंयम, या उपेक्षासंयम, परिहुतसंयम आदि अनेक भेद होते है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478