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सकरूचारिश्रप्रकरण
बड़ा अपराध ( मिथ्यात्व ) पहिले छुड़ाता है। बिना ज्ञानके अपराध छूटता हो नहीं है । अपराध छूटनेका उपाय-वीतरागविज्ञानता है दूसरा नहीं, ऐसा समझना चाहिए ।
(४) उत्सर्गतप--शरोरादिसे ममत्व छोड़ना उत्सर्गतप कहलाता है। अथवा प्रासुक भूमि आदिमें मलमूत्रादिका त्याग करना, जिससे जीवधात न हो, जीवोंको रक्षा हो इत्यादि यह भी प्राण व इन्द्रियसंयम है। अधाग्रिहादिना मा तप है ! जान्दा अहिरंग दोनों परिग्रहका त्याग करना )।
(५) स्वाध्यायतप-आत्मस्वरूपका चिन्त्वन करना-.-स्व और पर ( आत्मा व शरीर) का भेद जानना तथा परसे रागादि छोड़ना इत्यादि । यह वाचना-पृच्छना-अनुप्रेक्षा-आम्माधर्मोपदेशके भेदसे पाँच प्रकारका होता है।
(६ ) ध्यानतप-यह चित्त या मनको एकाग्र या स्थिर करनेसे होता है। उसके आतंरौद्रधर्मशक्ल चार भेद कहे गये हैं। परन्तु यहाँ सम्यग्दष्टिका सम्बन्ध होनेस धर्मध्यान व शुक्लध्यामका ही सम्बन्ध समझना चाहिए। असली सप वही है, जिससे कर्मों का संवर व निर्जरा हो।
___ आगे उपसंहाररूपसे अणुव्रती श्रावकका कत्र्तव्य यथाशक्ति र योग्यतानुसार ) सकल चारित्र (मुनिव्रत ) पालनेका भी है, यह बताते हैं ।
जिनपुंगवप्र चने मुनीश्वराणां यदुक्तमाचरणम् । सुनिरूप्य निजां पदवीं शक्तिं च निषेध्यमेतदपि ॥२०॥
मुनियोंका आचरण कहा है जैसा श्री जिनवाणीमें । शनि और निजपदको सपकर बह भी करना मनु मैब में ।। लिन संयमके आपन खोला नहीं सनातन रीति है। सम्बरष्टि बह कैसा है जिसे में सथम प्राप्ति है ॥२०॥
अन्यय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि जिनपुंगवमनन ] सर्वज्ञदेवद्वारा कथित जिनागम ( जिन बाणो) में [ मुमाइवराणां यदाचरणमुकम् ] जो मुनियोंका आचरण ( कर्त्तव्य ) कहा गया है [ एनापि मिजो पदधौं शक्ति व सुनिरूल्य निषेव्यम् | वह भी अपना पद व योग्यता ( सामथ्र्य ) को देखभालकर क्रमशः पालन करना चाहिये, क्योंकि श्रावक ( अणुव्रती ) ही उसको पालता है या पालनेका अधिकारी है ।। २०० ।।
भावार्थ-अणुव्रत धारण करने के पश्चात ही महावत धारण किया जाता है ऐसा नियम १. जिमवाणी। २. विचारकर या देखकर । ३. मनुष्यपर्याय ।