________________
सार साक्षात् कारण ( उपाय ) नहीं है। अतएव उतने मात्र में सन्तुष्ट या कृतकृस्य नहीं हो जाना चाहिये आगेका ( क्षायिक सम्यक्त्व व महानतादि प्राप्त करनेका ) पुरुषार्थ बन्द नहीं कर देना चाहिये यह तात्पर्य है।
संक्षेपमें क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिक्रज्ञान ( केवलज्ञान ) क्षायिकचारित्र ( परमयथाख्यात ) के हुए विना मोक्ष नहीं होता व संसार नहीं छूटता ।। २०० ।।
आगे-- उत्कृष्टश्रावक ( मुनिश्रतका उम्मीदवार ) का और क्या-क्या कर्तव्य है यह बताया जाता है।
(षडावश्यक पालना) इदमावश्यकपटकं समतास्तववन्दनाप्रतिक्रमणम् । प्रत्याख्यानं वपुषो व्युत्सर्गश्चेति कर्तव्यम् ॥ २०१॥
पच समगा स्तुति वन्दन तीनों, और प्रतिक्रमण भी करना । प्रत्याख्यान क्रियाका करना तनुम्मस्वका भी सजना ॥ ये छह आवश्यक कर्म कहे हैं इनका करना निसप्रति है।
श्रावक अरु मुनि दोनों करते अवशकार्य यह निश्चित है ।। १०१ ॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते है कि [ समता-स्तव-वन्दनानिमणम् ] समता, स्तुति, बन्दना, प्रतिक्रमण, I प्रयाख्यान, सपूषी उगुलपग: ] और प्रत्याख्यान व शरीरसे ममत्व छोड़ना [ इति इदमावश्यकपटकं कर्तव्यम् ] इस प्रकार ये छह आवश्यक (नियमित कार्य ) अवश्य-अवश्य श्रावकको करना चाहिये--अन्तर नहीं देना चाहिये ।। २०१ ।।
भावार्थ---मोक्षरूपी फलकी प्राप्तिके लिये पेश्तर भूमिका तैयार करना अनिवार्य है। जब तक भूमिकाशुद्धि नहीं होती तबतक कोई भी बीज फल नहीं देता। तदनुसार उक्त छह आवश्यक नित्य कर्तब्धके रूपमें निरन्तर करनेसे आत्मशद्धि होती है अर्थात् आत्मामें से विकारी या अशुद्धभाव निकलते हैं और शुद्ध ( वीतराग) भाव या विशुद्धभाव ( शुभरागरूप ) प्रकट होते हैं, जिनसे जीवका कुछ भला {हित ) होता है या उसकी योग्यता बढ़ती है-वह मोक्षको प्राप्त करने के लिये समर्थ होता है। उनका स्वरूप निम्न प्रकार है।
(१) समताभाच...सब जीवोंके प्रति राग और द्वेषका त्याग करना अथवा मैत्री धारण करना, यह मन्दकपाय या वैराग्यका फल है उससे संबर और निर्जरा होतो है । अतः अभ्यासरूप से वह करना ही चाहिये श्रावक व मुनिका वह नित्य कर्तव्य है, अनिवार्य ड्यूटी है। मानसिक
१. अनिवार्य --अवश्य ही करमेयोग्य कार्य---अन्वराय बिना करना चाहिये।