________________
MAADAAMROSARSA
५४
पुरुषार्थसिधुपाय
भोजनश्याग और कम खाना एकान्ते खोना रहमा । रसका त्याग देहका ताड़न संख्या बसको तय करना। ये है छह तप बाहिर दिखते, इमको करना पहिले है।
आरहितैषी कर सकता है, क्रम-मसे पग धरता है ॥१९॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि अनशनमवमोदय ] अनशन ( उपवास ) व कनोदर { थोड़ा आहार करना ) [ विविकशनयासन रसत्यागः ] एकान्तबास ( रहना ) और एकान्तमें सोना, ध्यान लगाना एवं रसोका त्याग करना । चं कारयोः ज्या शारीरिक परोषह सहन करना । शरीरको आराम नहीं देना) नियमोंका लेना--घर आदिको अटपटी प्रतिज्ञा लेना ( जब ऐसा मिलेगा तभी आहार लेंगे अन्यथा नहीं इत्यादि ) [ इसि बाह्यं सर निषेध्यम् । इन उपर्युक्त ६ छह बहिरंग तपोंको धारण करना चाहिये क्योंकि वे मोक्षके अंग ( साधन ) हैं ।।१९८॥
भावार्थ--तप आत्मशुद्धिका निमित्त कारण है, क्योंकि इच्छाओं या राम आदि विकारोंके न होने से ही ( वीतरागता आने पर ही ) आत्मा शुद्ध होती है अर्थात् उसका परद्रव्य ( कर्म नोकर्म रामादि व धनादि ) से सम्बन्ध छूटता है। बस वही 'परद्रव्यसे भिन्नताका नाम' आत्मशुद्धि है। फलतः परद्रमसे अरुचिका होना ( स्वामित्व छूटना) व उसका त्याग करना तप कहलाता है ।।१९८॥
इन सबका स्वरूप बतलाया जाता है।
(१) अनशन अर्थात् उपवास-जिसमें काषाय ( रागादि), विषय-पंचेन्द्रियोंके भोग और अशन-खाद्य-स्वाद्य-पेय, इन चार प्रकार के आहारोंका त्याग हो उसको उपवास कहते हैं। यह चतुर्थ भक्त ( १ उपवास ), षष्टभक ( २ उपवास ) आदि अनेक रूप होता है !
(२) सनोदर ( अबमोदर्य ) --खुराकसे कमती खाना-पोना, कनोदर कहलाता है इसमें आकुलता या संक्लेशता कम करने का लक्ष्य रहता है।
(३) विविक्तशय्यासन-एकान्त व निरुपद्रव स्थानमें रहना, सोना, ध्यान धरना विविक्तशय्यासन तप कहलाता है। इसमें भी निराकुलता प्राप्त करनेका लक्ष्य रहता है-रागादिक कम करनेका प्रयोजन रहता है।
( ४ ) रसत्याग-नीरस भोजन करनेको, अर्थात् मनचाहा रसका त्याग करके उस बिना भोजन करनेको रसत्याग तप कहते हैं। इसमें रसनेन्द्रियको वश में रखना मुख्य प्रयोजन रहता है तथा गर्तपुरण वृत्ति या चर्याका प्रदर्शन-परिचय मिलता है, यह कठिन तप है। बिना कषाय कम हुए यह नहीं हो सकता। १. उक्तं च-कषायविषयाहारत्यागो यत्र विधीयते ।
उपवासः स विज्ञेयः शेष लंघनक विदुः || --उपासकाध्ययन ।
w win-.
..me
--.......
:::::