Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

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Page 404
________________ सेकलचारित्रप्रकरण शास्त्रके श्रद्धानी हो सम्यग्दृष्टि होते हैं यह नियम है ! हाँ, बिमा जाने समझे यदि ऊपरी चरणानुयोगके अनुसार लिंग ( नाजबी हो तो उसने माता मशिबलाई जा सकती है, क्योंकि मन्द कषाय के समय स्वभावतः वैसा होना संभव है किन्तु परोक्षा होने के बाद जैसी पात्रता हो वैसा हो बर्ताव करना उचित है बुद्धिमत्ता है, किम्बहुना । परीक्षाप्रधानता सम्यग्दष्टिका पहिला गुण है, जो होना ही चाहिये । इस विषयमें विवाद करना निरर्थक है, कषायको पुष्ट करना है या अज्ञानता है। केवल शास्त्रोको पढ़ लेमा मात्र विद्वत्ता या ज्ञानता नहीं है अपितु रहस्यको समझना या भावभासना होना ही ज्ञानता व विद्वत्ता है। नोट-आगम या शास्त्रका सही अर्थ तभी लगाया जा सकता है जबकि शब्दार्थ, वाच्यार्थ, नधार्थ, मतार्थ आदि ५ पाँच बातों का बोध हो, अतएव जिज्ञासुको उसका पुरुषार्थ सदैव करना चाहिये। तपके भेद प्रभेव मूलमें तपके २ दो भेद है ( १ ) बहिरंगतप और उसके अनशनादि छह भेद । (२) अन्त. रंगतप और उसके प्रायश्चित्तादि ६ छह भेद। तपका निरुक्ति अर्थ 'तप्यते मुमुक्षुभिरिति तपः' अर्थात् मोक्षार्थी भव्य प्राणी जो तपते हैं....कर्मोकी निर्जरा करते हैं.....शुद्धात्मस्वरूपका आलम्बन करते हैं या उसका स्वाद लेते हैं, उसको तप कहा जाता है। इसका उद्देश्य.-.-पर्यायाथिकनयको अपेक्षासे संयोगीपर्यायमें मौजूद अशुद्ध-आत्माको ध्यानाग्निके द्वारा ( उपयोगकी स्थिरता या निर्विकल्पताके द्वारा ) जैसे सुवर्णगत अशुद्धताको अग्निक्रिया द्वारा निकाला जाता है वैसा निकालना या दूर करना है। जबतक संबोगोर्याय रहती है, तबतक परद्रव्य का संयोग पूर्ण रूपसे नहीं छूटता क्रम-क्रमसे छूटता है। और बिना सम्पूर्ण संयोग छूटे मुक्ति नहीं होती यह नियम है । यद्यपि भेदज्ञानके साथ-साथ होने वाले वैराग्यसे असचिरूप ( विचारसे ) परद्रव्यका संयोग संबंध छूट जाता है ( स्वामित्व छूटता है ) परन्तु उसका संयोगसम्बन्ध ( सत्तारूपस्थिति ) नहीं छूटता वह साथ-साथ बना रहता है, अतएव मुक्ति नहीं होती। ऐसी स्थिति में वह चरणानुयोगके अनुसार त्यागी नहीं माना जा सकता, वह सरासर अस्यागी, अवती. असंयमी है। तथा निमित्तकारणताकी दृष्टिसे उन निमित्तोंका त्याग करना भी जरूरी है अनिवार्य है--जिनसे कषायोंकी उदोरणा होती है और एकत्व विभक्तरूप नहीं बनता, किम्बहुना । उभयशंद्धि---अन्तरंग बहिरंग दोनों परसंयोगोंका अभाव होना अनिवार्य है। उसका एक साधन तप बतलाया गया है। आचार्य बहिरम तपके भेद बतलाते हैं । अनशनभवमोदर्य विविक्त शम्यासनं रसत्यागः । कायक्लेशो वृत्तेः संख्या च निव्यमिति तपो बाधम् ॥१९८|| MixMESSIAHE-MANPRESS RAMBHARA Ramaintactarik

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