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नौवाँ अध्याय सकलचारित्र प्रकरण ( यत्याचार) चारित्रान्तर्भावात् तपोऽपि मोक्षांगमागमे मदितम् । अनिहितनिजवीयैस्तदपि निषेव्यं समाहितस्वान्तः ।। १९७ ॥
मोक्षमार्गमें चारिस भीतर--सपको शामिल किया गया । अतः उसे कर्तव्य बताकर मोक्षमागको सधाया ।। जो कम्पशूर अरु मनको--कानित करने पाले ।
उन्हें निरंतर उग्रम करना, तप निर्वा होथ पाले ॥ १७ ॥ अन्धय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [आगमें चारित्रातर्भावात् तपोऽपि मोक्षागं गदितम् ] शास्त्र या जिनशासनमें-चारित्रका हो भेद ( अंग होनेसे तपको भी मोक्षका कारण माना गया है ( वह मोक्षमार्गसे पृथक नहीं है ) अतएव [ अनि हितनिजवीर्यः समाहितस्वान्तः तरपि निषेत्रम् ] अपनी शक्ति या योग्यताको नहीं छुपानेवाले एवं स्थिर चित्तवाले ऐसे पुरुषोंको चाहिये कि वे, सपको धारण अवश्य करें, यह उनका कर्तव्य है ।। १९७ ॥
भावार्थ-चारित्रको मोक्षका मार्ग पूज्य आचार्योंने सर्वसम्मत माना है, उसमें कोई मतभेद या विवाद नहीं है लेकिन त का स्पष्ट उल्लेख मोक्षमार्ग में नहीं किया गया है तथापि उसका अन्तवि ( शामिल होना) चारित्रमें किया गया है या हो जाता है, वह मोक्षमार्गसे भिन्न नहीं है। ऐसी स्थितिमें तपको तपना या धारण करना अनिवार्य है क्योंकि बिना उसके कार्य सिद्ध नहीं होता। फलतः मुमुक्षु जीवोंका वह नित्य कर्तव्य है । छह नित्य कर्मों में पाँचवें नम्बरमें कहा गया है ) तपका साधारण अर्थ इच्छाओं अर्थात् रागादिकोका रोकना होता है, उससे ही अथवा बोतरागपरिणतिसे ही जोवका कल्याण हो सकता है अन्यथा नहीं हा सकता। जो जीव सपसे डरता है या तपमें श्रद्धा नहीं रखता वह कायर व मिथ्यादृष्टि है अतः यथाशक्ति इच्छाओं को कम करना जरूरी है, जिससे सम्बग्दष्टिपना नष्ट न हो किम्बहुना । मोक्षमार्ग या तपको साधना सब कोई नहीं कर सकता-किन्तु जो आत्माको अनन्त शक्तिको जानकर ( सम्यग्दर्शन प्राप्त कर )
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१. उक्त व- देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः ।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ।। २, इच्छानिरोधस्तपः ।। ३ । त० सू० अध्याय ९३
T: Tishah/Talwand