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पुरुषार्थं घुपा
इत्येतान तिचारानपरानपि सम्प्रतर्क्स परिवर्ज्य | सम्यक्त्यव्रतशीलैरमलैः पुरुषार्थसिद्धिमेत्यचिरात् ॥ १९६॥
पद्म
पूर्व कहे अविचारों को अरु और बुद्धि में जो आवे । उन सबको परिवर्जन करके, निर्मलता को अपनायें ॥ सम्यग्दर्शन त अरु कॉल हि, जब निर्मल हो जाते हैं । तब ही अल्पकाल में साधक, इष्टसिसिको पाते हैं ॥ १-६॥
अन्वय अर्थ --- आचार्य कहते हैं कि जो व्रती ( साधक ) [ इत्येतानपरानपि असिधाराम् ] पूर्व में कहे हुए सम्यग्दर्शनादिके ७० सत्तर अतिचारोंको तथा और भी [ सम्प्रतयं परिवर्ग्य ] जो बुद्धि तर्क से आगे उपत्यका अमलैः सम्यक्त्वशीलैः ] निर्मल ( निरतिचार ) सम्यग्दर्शन-व्रत-शोलको प्राप्त करते हैं । उनके द्वारा ) वे पुरुष ( सन्त महात्मा ) [ अचिरात् पुरुधार्थसिद्धिमेति ] बहुत जल्दो ( शीघ्र ) पुरुषार्थ की सिद्धिको अर्थात् इष्ट सिद्धिको ( मोक्षको ) प्राप्त कर लेते हैं अर्थात् संसारसे पार हो जाते हैं या मोक्षमार्गको साधनाका फल उन्हें मिल जाता है ॥ १९६॥
भावार्थ - इस श्लोक द्वारा संक्षेप में सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्रको साधनाका माहात्म्य या फल बतलाया है जिससे मुमुक्षु प्राणी उस ओर उन्मुख होवें । मुखातिब होवें ) अर्थात् आकर्षित होवें । पूज्य अमृतचन्द्राचार्यने जिस क्रमसे रत्नत्रयको उपासना करना बतलाया है उसी क्रमके अनुसार अपनानेसे निःसन्देह साध्य (मोक्ष) की सिद्धि हो सकता है रंचमात्र अन्तर नहीं आता । पद व योग्यता के अनुसार कार्य करनेसे सदैव लाभ होता है यह नियम है । साधारण न्यायसे सम्यग्दृष्टिवतो अर्धपुद्गलपरावर्तनकालतक संसारमें रह सकता है किन्तु यह अन्तिम raft है किन्तु योग्यतानुसार पुरुषार्थं द्वारा जल्दी ही मोक्ष जा सकता है। अतएव एकान्त धारणा न करके भवितव्यपर विश्वास रखते हुए पुरुषार्थ हमेशा करना चाहिये, क्योंकि उस भूमिका में कषायका सदभाव होनेसे उनके उदयकालमें तरह-तरह के विकल्प उठते हैं-इच्छाएं होती हैं तथा उनकी पूर्ति के लिए उपाय किये जाते हैं—निमियोंका सहारा लिया जाता है उनका संग्रह व पृथक्करण किया जाता है इत्यादि, परन्तु श्रद्धा अटल रहती है-वह नहीं बदलती। उपयोग ( ज्ञान ) बदलता रहता है, एकत्र स्थिर नहीं रहता इत्यादि । सबका सारांश समझकर कार्य करना ही बुद्धिमानी है, किम्बहुना ।
इति देशचारित्र ( मणुव्रत ) कथन समासम्