Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

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Page 398
________________ अतिचारप्रकरण ३८७ पद्य जीवन और मरणकी बाँडा मित्रराग सुखयाद करम | परमवका निदाम करना ये अतीचार सन्यासमरण । इनका त्याग करन, सल्लेखन-समय-प्रभु बतलाया है। अहो मध्यजन करो सफल तुम उत्तम नरभव पाया है ।। १९५ ॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि सल्लेखनगमाले सल्लेखनाके समय [ जीवितमरणाशंसे सुहदनुरागः ] अधिक सोनेको या जल्दी मरने की आकांक्षा करना, इष्ट मित्रोंसे अनुसम्म रना अर्थात उनसे अधिक स्नेह करना ममत्व करना)[च सुखानुबंधः सनिदानः 1 और पूर्व में भोगे हुए सुखोंका स्मरण करना तथा आगेका निदानबंध करना अर्थात् आगेकी अभिलाषा ( चाह) मनमें करना। एते पंच अतिधाराः मवन्ति ] ये पाँच सल्लेखनाव्रतके अत्तोचार हैं, उन्हें त्यागना चाहिये क्योंकि चाहनेसे वस्तुका परिणमन नहीं बदलता इत्यादि ॥ १९५ ।। भावार्थ-सल्लेखनायत धारण करना जोवनका अन्तिम व मुख्य लक्ष्य है जो प्रत्येक सम्यग्दृष्टि व्रतीका होना चाहिये। सल्लेखनामें कायसे ममत्व हटाया जाता है, काषाएँ कम की जाती हैं भोजन पान बन्द किया जाता है और यह कार्य वैराग्य परिणामोंसे किया जाता है.--कषाय पोषणके लिए नहीं किया जाता तथा धर्मको वृद्धिके लिए वह किया जाता है क्योंकि रागादि कषाएँ अधर्म हैं, उनके छूटनेसे वीतरागतारूप धर्म बढ़ता है। ऐसी स्थितिमें उसको आत्मघातका दोष ( लांच्छन ) नहीं लगता। संसार शरीर भोगोंसे,विरक्ति ( अरुचि ) होना जीवका स्वभाव है, परन्तु अज्ञानतासे उसका विपरीत परिणामन हो जाता है (विभावरूप ) पुनः जब भेदज्ञान या सम्यग्दर्शन होता है तब उसको अपने स्वभावका ज्ञान व अनुभव होता है भल मिटती हैप्रबुद्ध होता है तथा उस समय अपनेको 'एकत्व विभक्तरूप, जानकर परसे विरक्त और यथाशक्ति त्यक्त ( पृथक होता है इत्यादि जो उसके हितमें है। संयोगीपर्याय में परद्रव्यका ( परिग्रहादिविषयोंका) और रागादि विकारी भावों का परस्पर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध रहता है, जिससे संसारका तांता ( लगाव ) नहीं टूटता वह बढ़ता हो जाता है ! अतएव उस परद्रव्यका अथवा निमित्त कारणका सम्बन्ध विच्छेद करना अनिवार्य है. उसीके संसारकी बेल कट सकती है, तभी तो महान् पुरुषोंने वैसा किया है। परिणामों में निर्मलता परका संयोग छोड़नेपर हो हो सकती है। ऐसा व्यवहारमें माना जाता है। तब व्यवहार दशामें रहते हुए उसका पालन करना अनुचित नहीं कहा जा सकता-परम्परयाका यही अर्थ है कि व्यवहारमयसे वैसा है. निश्चयसे नहीं है, अस्तु । जोवको सुधारनेका आखिरी अबसर सल्लेखना है सो अवश्य करना चाहिये, कि वह उचित अवसरपर ही होना चाहिये जबकि मरण निश्चित हो जावे ( उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रजाया च निःप्रतीकारे, इत्यादि )। आत्मघातको शंकाका खण्डन पहिले अच्छी तरह किया ही जा चुका है श्लोक नं० १७७ में देख लेना ।।१९५।। ___आगे संक्षेप { उपसंहार ) में अतिचार रहित निर्मल सभ्यग्दर्शन ब्रतशील आदिका माहात्म्य (फल ) दिखाते हैं।

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