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अतिचारप्रकरण
लाभ कुछ नहीं होता, हानि ही होती हैं। तब व्रती विवेकी ऐसे काम छोड़ देते हैं- ( नहीं करते, न उन्हें करना चाहिये। चतुर बुद्धिमानों के कार्य हमेशा बुद्धिमत्तापूर्ण रहते हैं। जिनको संसार बढ़ानेका भय नहीं हो स्वनचन्द आहार-विहार करने में मस्ल रहे, जिनको अनर्थसेवक बाहना चाहिये। विन्तु जो कदाचिन् कपायके वेगवन अनर्थ का कार्य कर बैठे परन्तु उसको बुरा समझें व खेद-खिन्न हों और छोड़ने का प्रयत्न ( पुरुषार्थ) करें वे अनर्थ सबक नहीं है। ऐसी स्थितिमें सम्यग्दष्टि नती, लाविहार में चरणानुयोगके अनुसार अनर्थदण्डके कर्ता भले ही माने जायें किन्तु कानयोगके अनमार मोक्षमार्गीबी.शुभारमार्गी नहीं हैं. उनके प्रति समय अमख्यातगणित निर्जरा होती है। जैनम में भावासहा संसार व मोक्षहोला है किम्बहना । जितना त्याग व ग्रहण ( संसारका त्याग व मोक्षमार्गका ग्रहण ) शक्ति के अनुसार किया जा सके उतना ही शक्तिका न छुपाकर करना चाहिये और जो शक हीनतासे न किया जा सके उसके करनेको सिर्फ बांछा व श्रद्धा रखना चाहिये, जिससे वह सम्यग्दष्ट्रि बना रहेगा, अन्यथा मिथ्यादष्टि हो जायगा। तब भाव सदैव ऊंचे रखना चाहिये कायरता बहा पाप है। संसार सागरसे पार करनेवाला सम्यग्दर्शनरूप भाव ही हैं, दूसा कुछ नहीं।
वियोलार ) संयोगी पर्यायों अनेक विकल्प उठते हैं और उनकी प्रतिके लिये जीव अनेक सरहके प्रयत्न करते हैं अर्थात् बाह्य निमित्तीको मिलाले हैं ( जो अनुफाल होते हैं ) और पृथक् करते हैं । जो प्रतिकूल होते हैं । तथा यह कार्य सम्यग्दृष्टि जीव भी करते हैं और मिथ्याटि जोय भी करते हैं, क्रियामें फरक नहीं होता, फरक अभिप्राय ( भाव ) में होता है, उसी का फल मिलता है । सम्यगदृष्टिके उपर्युक्त कार्यका मल कारण गगद्धेषको तीज परिणति है, उसीसे वैसी प्रतिक्रिया होती है, किन्तु अज्ञान परिणति कारण नहीं है अत: उसके अज्ञान । मिथ्याल ) रहता ही नहीं है। अतः उसको द्रव्य गुणपर्यायका सही ज्ञान रहता है। वह भूलता नहीं है। इसीलिये वराजोरी से बलात्कार से प्रतादिकमें रागद्वेषजन्य दोष उसको लगते हैं जो संयोगी पर्याय में रागद्वेषादिके अस्तित्वका प्रभाव है जिसे वह हेय या बुरा समझता है फिर भी बीसरागत में (प्रल या चारित्रमें ) रागादिका होना दप है अस्तु । असमें मोक्ष का मार्ग शुद्ध, ( बोतगग) ही एक होता है, अतएव उसमें कलंक नहीं लगाना चाहिये, तभी उससे साय ( मोक्ष ) को सिद्ध होगी। साध्यसाधकभावमें भी दानों कारण कार्य कसे होना चाहिये जैसे कि साध्य अर्थात् मंयक्ष, यदि शुद्ध है ( सर्व कर्मरहित । है तो उसका कारण उपयोग भी याद्ध ( रागादि रहित । होना चाहिये अर्थात् शुद्धोपयोगरूप कारणसे ही शुद्धताप मोक्ष कार्य हला है इत्यादि । इसमें सम्यग्दृष्टि नहीं भूलता, उसको द्रव्य गुणपर्यायका यथार्थ ज्ञान प्रदान रहता है ( स्वपरका सम्यकबोध रहता है । इसके विपरीत
मिथ्याष्टिको जो विकल्प उठते हैं और उनको पुतिके लिये जो वह निमित्त मिलाताव
१. उक्तं च--जं सक्कातं कीरहण सक्कड़ तहेव सहहणं ।
केलिजि मेहि भगिर्य-सद्दहमाणस्स समत्तं ।।२२।। भाषपाहुए, कुन्दकुन्दाचार्य