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पुरुषार्थसिद्धपा
हटाता है, उसका कारण अज्ञान - स्वभावका ज्ञान न होना, और रागद्वेषकी सम्मिलित परिणति है अर्थात् उसको उनमें भेद ज्ञान नहीं रहता वह सबको एक एवं अपने ही मानता व जानता है, यह महान भूल उसके पाई जाती है । फलस्वरूप उनको वह हेय नहीं समझता न उनको छोड़ता है इत्यादि । अभिप्राय में फरक दोनोंका रहता है अतएव एक मोक्षमार्गी है ( सम्यग्दृष्टि ) और एक संसारमार्गी ( मिथ्यादृष्टि है ऐसा निर्णय समझना चाहिये ।।१९० ।।
आगे - सामायिक नामक दूसरे शिक्षाव्रत के ५ पाँच अतिचार बतलाते हैं । ( सातशीलों में से चौथा शील )
वचनमनः कायानां दुःप्रणिधानमनादरश्चैव । स्मृत्यनुपस्थापनयुताः पंचेति चतुर्थशीलस्य ।। १९१ |
पद्य
कृत योगा जो दुरुपयोग नित करना है।
और अनादरभाव उसीमें मूल मूल हो जाना है ।
ये पाँचों अतिचार कड़े है -सामायिक शिक्षावतके |
इन्हें छोड़ना उन पुरुषोंको, जो उत्सुक है निज हिंसके ॥ १९१ ।।
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ वचनमनः कायानां सुः प्रणिधानमनादरः ] मनवचनकायकृत तीन योगोंका दुरुपयोग करना अर्थात् मनमें अन्यथा विचार करना या मनको स्थिर न रखना तथा वचन अन्यथा बोलना अर्थात् अशुद्ध मंत्र या पाठ बोलना एवं शरीरको प्रवृत्ति अन्यथा करना काययोगको बार-बार चलाना तथा सामायिक करने में उत्साह या विनय नहीं करना [ स्मृत्यनुपस्थानयुताः [ सामायिकका काल पाठ भूल जाना [ इति पंच चतुर्थशीलस्य अतिचाराः ] ये पाँच चौथे शीलव्रतके अर्थात् 'सामायिक शिक्षावत' के अतिचार हैं, इनका त्याग करना चाहिये ॥ १९१ ॥
भावार्थ -- सामायिक शब्दका अर्थ --- आत्मस्वरूप में एक या स्थिर हो जाता है शुद्ध स्वरूपका अनुभव करना है । जिसका खुलासा 'मनवचनकाय' इन तीनोंकी क्रियायों ( प्रवृत्तियों ) का अवरोध कर ( बन्द करके ) सिर्फ अपना उपयोग आत्माके शुद्ध स्वरूपमें लगाना है स्थिर करना है । जबतक ऐसा प्रयोग नहीं किया जाता तबतक 'सामायिक' सिद्ध नहीं होती अर्थात् उसको सामायिक नहीं कहा जा सकता । यद्यपि आसनका मांडना ( मुद्रा धारण करना ), पाठका पढ़ना, शिरोनति आदिका करना आदि सब 'सामायिक' नहीं है उसकी तयारी करना है, निमित्तिकों का मिलाना है, तथापि उपचारसे उसको भी सामायिक में शामिल किया गया है। तब प्रारम्भकी व अन्तको सभी क्रियायें सामायिक नामसे कही जाती हैं। शिक्षावत में यह कार्य अभ्यासरूपसे रहता
१. उभं च --- योगः दुःप्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३३ ॥ ० सू० अ० ७