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पुरुषार्थसिद्धधुपाय पुनरुक्ति दोष नहीं आता, कारण कि कई क्रियाओं में समानता रहती है, जिसमे बाधा नहीं आती प्रत्युत लाभ होता है अस्तु । शेष देखभाल कर चीजोंका उठाना, धरना तथा विस्तर आदि करला (टद्वी पेशाब आदि करना ) यह भी देखभाल कर प्रासुक जगहमें करनेसे हिंसा बचती है, अहिंसा पलती है । स्मृति रखना, आदर करना, इससे गलती मिटती है--प्रमाद नष्ट होता है। पूजनकी सामग्रो आदि भी अच्छो तरह शोच बोनकर ( प्रासुक) काममें लाना चाहिये। उत्साह होनता किसी कामायने तीव्र वेग में होती है । भिखमारकी देन बाधा होने पर जल्दी जल्दी या भूलकर विगार जैसो टाली जाती है जो बड़ा अपराध है। अतएव सहनशीलता व शक्तिका मोना भीतीके लिये अत्यावश्यक है अन्यथा परिणाम बिगड़ जाने पर लाभ नहीं होता--परिणामोंको निर्मल रखना पहिला कार्य है अस्तु ।
नोट-वतीको सावधानो हमेशा रखना चाहिये परन्तु पर्व आदिके दिनोंमें तो खासकर विशेष ध्यान रखनेको जरूरत है। प्रत धारण करनेका एकमात्र लक्ष्य अहिंसाधर्मको पालना है किम्बहना। चौथो प्रापबीपवास प्रतिमा पूर्वोक्त अतिचार नहीं लगाये जाते-उसको निरतिधार पाला जाता है। यहाँ कभी अतिचार लग सकते हैं ऐसा समझना चाहिये ॥ १९२ ।। आगे भोगोपभोगपरिमाण नामक तीसरे शिक्षाप्रसके पात्र अतिचार बतलाते हैं।
"आहारो हि सचित्तः सचितमिश्रस्सचित्तसम्बन्धः । दुष्पकोऽभिषवोऽपि च पंचामी षष्टशीलस्य ॥१९३।।
पद्य
जो ससित्त भर सचित्तमिश्रित, अरु सचित्त सम्बन्धित हो। देर हनम अरु गरिष्ठ वस्तु, जो व्रत में प्रतिबन्धक हो । थे पाँचों अतिचार प्रती के, वैसा मोजन नहिं करते।
इन्द्रिय संयम जीव दया ये, लक्ष्य सदा हाँथे रखते ३ १९३।। अन्वय अर्थ...आचार्य कहते हैं कि [ हि सविसः आहारः समितमिश्नः सचिससम्बन्धः ] यथार्थतः जो आहार ( भोजन ) स्वयं सचित्त हो अर्थात् जिसमें एकेन्द्रियादि जीव पाये जाते हैं । पाँच स्थाधर कायवाला आहार ) तथा जिसमें कुछ अंश सचित्तका मिला हो ( कुछ सचिस व कुछ अचित्त मिला हुआ ) एवं जिसका स्पर्श सचित्तसे हो गया हो ( सचित्तपत्तल आदिसे अचित्तको इक देना अथवा उसपर परोस देना ) [ व दुष्पक: अभिषवोऽपि] और जो कठोर या देर हजम हो ( अधचुरा हो) तथा परिष्ठ हो ( इन्द्रियविकार कारक हो ) या अधिक स्वादिष्ट हो अमी पड़धवस्य पंच अतिचाराः ] ये पांच अतिचार भोगोपभोगपरिमाण नामक छठवें शीलवतके हैं, इनका त्याग करना चाहिये ।।१९३
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१. उक्तंच-सभित्तसम्बन्धसम्मिश्राभिषवदुःपक्वाहाराः ३३५३॥ त० सू० अ०७।