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अविचार करण
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कर लेता है व कृतकृत्य हो जाता है यही पूर्वक्रम है, इसको अपनाना प्रत्येक मुमुक्षुका कर्तव्य है । प्रतिज्ञा भंग करना महान् अपराध माना गया है यह सदैव ध्यान रखा जावे। ये सब उपाय परसे सम्बन्ध छोड़कर एकाकी शुद्ध स्वरूप बननेके हैं किम्बहुना मर्यादासे बाहिर रागादिक विकारी भावोंको छोड़कर स्वभावभाव में स्थिर होनेका लक्ष्य रहता है ।। १८८ ।।
आगे देश
नामक गुणव्रतका स्वरूप बतलाते हैं ।
प्रेष्यस्य संप्रयोजन मानयनं शब्दरूपविनिपाती | क्षेपोsपि पुद्गलानां द्वितीयशीलस्य पंचेति ॥ १८९ ॥
पछ
tafera की सीमा बाहिर वस्तु भेजना सगवाना । शब्द बोलकर रूप दिखाकर, निज मनरथ पूरा करना कंकर पत्थर फेंक इशारा भीतर से बाहर करना । अशीयार ये पाँचों भाई, द्वितीयशील मत के राजना ।। १८९ ।।
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ प्रेयस्य संप्रयोजनं आनयनं ] देवव्रतको सीमाके बाहर किसी दूसरे साधन द्वारा भेजने योग्य वस्तुको भेज देना व मंगा लेना तथा [ शब्दरूपविनिवासी ] शब्द बोलकर या रूप दिखाकर अपना प्रयोजन सिद्ध करना एवं [ अधि युगलानां क्षेषः ] कंकर, पत्थर फेंककर बाहिर इशारा करना [ इति द्वितीयशीलस्य पञ्च अतिचाराः ] इस तरह दूसरे शीलत ( देशव्रत ) के पाँच अतिचार बतलाये गये हैं अर्थात् ये पाँच अतिचार हैं। ऐसा समझकर देशव्रतको इनका त्याग करना अनिवार्य है ॥ १८९॥
भावार्थ-संसारी जीव कषायवश अपना प्रयोजन हर तरहसे सिद्ध करते हैं । व्रती हो जानेपर भी जबतक कषायोका संयोग सम्बन्ध रहता है या संस्कार रहता है तबतक गुप्तरूप ( मायावारी) से या प्रकटरूपसे अपनी मंशा पूर्ण करने में संलग्न रहा करते हैं । इन्हीं सब खोटो ( हेय ) आदतों या विकारों को हटाने के लिए व्रतादिक धारण किये जाते हैं, परन्तु उनमें जब कोई त्रुटि न रहे - तमाम अतिचार छूट जायें, तभी उनसे लक्ष्य पूरा होता है अन्यथा नहीं। इस व्रतमें मर्यादा के भीतर मर्यादा, नियमित कालको की जाती है अर्थात् दिग्वत ( जीवन पर्यन्त ) की लम्बी मर्यादा अवान्तर हो संक्षेपरूपमें दिनरात्रि आदिके परिमाणसे त्याग किया जाता है अर्थात् इन्द्रियों और कषायपर नियन्त्रण ( कन्ट्रोल ) किया जाता है, जिससे उनके द्वारा होनेवाला अपराध छूट जाय ( बन्द हो जाय ) इत्यादि । इस तरह मूल देशव्रत धारण करनेवालेको अतिचार भी ( उप
१. भेजने योग्य वस्तु ।
२. भेजना। तार चिट्टी आदि भेजना भो वर्जनीय है इत्यादि ।
३. उक्तं च-- आनयनप्रेष्यप्रयोग शम्यरूपानुपात पुद्गलशेपाः ॥३१ ॥ ० सू० अ० ७