Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

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Page 388
________________ अतिचारप्रकरण पद्य अनार्दिक सत्र 1 संत मकान स्वर्ण अरु चाँदी पशू और दासीदास वस्त्र अरु वतन दशविध परि सीमित जय || अतः उन्हींका लंघन करना अतिचार कहलाता है । तको निरखिवार पालन हित उल्लंघन नहिं करता है ॥ १८८ ॥ 真电话 अन्य अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ सु-क्षेत्राष्टापदाधनधान्यदासदासीनाम् ] खेत मकान, सोना, चाँदी, गाय, भैंस, ( पशु ) गेहूँ. ज्वार, ( अन्न ) नौकर, नौकरानीके तथा [ कुप्यस्थ भेदयोरपि वस्त्र-वर्तन आदिक दशभेदोंकी | परिमाणातिक्रमाः मंत्र ] सीमा ( अवधि-मर्यादा ) का उल्लंघन करना, परिग्रहपरिमाणवत या परिग्रह त्याग अणुव्रत के पांच अतिचार होते हैं । व्रती उनको दूर करता है नहीं लगने देता ॥ १८७॥ भावार्थ - ये उपर्युक्त १० दश बाह्यपरिग्रह कहते हैं, इन्हों में सवारी भी शामिल है । श्रावक अणुवती इनका पूर्ण त्यागी नहीं हो सकता, कारण कि उसके गृहस्थाश्रम रहता है, उसको प्रतिदिन आजीविका के अर्थ व्यापारादि छह कार्य और धर्मके अर्थ देवपूजा आदि छह कार्य अवश्य करना पड़ते हैं, परन्तु उसके विवेक बुद्धि होने से वह पराश्रित व्यवहार कार्योंकी सीमा या परिमाण कर लेता है, जिससे उसका कार्य कोई बन्द भी नहीं होता और व्यर्थ पाप भी नहीं लगता अर्थात् अनावश्यक चीजों का संग्रह करना वह छोड़ देता है तब उनमें उसका राग ( मूर्च्छा या ममत्व ) छूट जाने से कर्मोंका यंत्र कमती होने लगता है। कायदा यह है कि जिसके जितना अधिक बाह्य परिग्रह होगा उतना ही उसके अधिक राम या ममस्व होगा तथा उतना ही अधिक कर्मबंध होगा व संसार बढ़ेगा इत्यादि । अतएव विवेकोजन बहिरंग और अंतरंग दोनों प्रकारके परिग्रहोंका पेश्तर परिमाण ( सीमा और पश्चात् सम्पूर्ण त्याग कर देते हैं। बाह्यपरिग्रह अन्तरंगपरिग्रहका निमित्तकारण होनेसे उसका भी त्याग करना लाजमो कहा गया है। क्षायोपशमिक ज्ञान व चारि के रहते समय सर्वघाती स्पर्धकों ( कषायों ) का उदय न होनेसे ( उदयाभावी क्षय व सदवस्थारूप उपशम होनेसे ) सिर्फ देशघाती स्पर्धकों का उदय होनेसे मन्दकषाय रहती है- तीव्रकषाय नहीं रहती । फलस्वरूप सवका त्याग तो वह कर नहीं सकता किन्तु परिमाण करके थोड़े में गुजारा करने लगता है, फिर भी उससे विरक्त या उदासीन रहता है जो उसके सिमें है । परन्तु उसका श्रद्धात या सम्यग्दर्शन अटल रहता है यह तात्पर्य है अस्तु । अहिंसाव्रतको प्रधानता पालनेवाला श्रावक या मुनि हिंसा के साधनों का उपयोग (स्तेमाल ) कभी नहीं करेगा, जबतक शक्ति रहेगी। वस्त्र वर्तन आदि भी ऐसे होते हैं जिनमें अधिक हिंसा होती है। जैसे कनी, रेशमीवस्त्र, चमड़ाके सन्दूक, बल्ली कुप्पी आदि । उनका उपयोग १. उच । भावविसुद्धिनिमित्तं, बाहिर संगस्य नागओ भणिदो बाहिर चाओ विहलो अन्तरसंग जुत्तस्य || ३ || भावपाड़-कुंदकुन्दाचार्य क्षेत्र वस्तु हिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः ॥ २१ ॥ ० सू० अ० ७ ४८

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