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पुरुषार्थसिधुपाय हो या मूर्तिरूप हो--सभीका त्याग कर देना सा कर्तव्य है। उनके साशासक : काधिक। मैथुन क्रिया करने का तो मुख्यतया त्याग होता ही है किन्तु मनमें उनकी ओर रागका होना भी वर्जनीय है । जब इतना दृढ़ अटल प्रतिज्ञाधारी कोई जीव होता है तभी वह सच्चा ब्रह्मचारी बन सकता है, बह व्रत बड़ा कठिन च दृर्द्धर है। इसको पालने के लिए कठिन् आचरण । साथमा) की आवश्यकता रहती है । नौ प्रकारकी बाड़ें लगाना पड़ती हैं, इन्द्रिय संयम करना पड़ता है सम्पर्क तोड़ना पड़ता है इत्यादि यह पूर्ण ब्रह्मचर्यका स्वरूप है। द्वितीयादि प्रतिमाका ब्रह्मचर्य, स्वदारसन्तोष तक सीमित है, अत: वह अभ्यासमात्र, विद्यार्थीको दशा है--उसको ब्रह्मचारी काहना उपचार है ! कृत कारित अनुमोदित तीनों भंगोंसे त्याग करना निरतिचार पालना है। जो जीव पंचम गुणस्थानमें रहते हुए ब्रह्मचर्यको अखंडित पालता है वही छठवें गुणस्थानमें पहुँचने पर { मुनिलिंग धारण करनेपर ) आसानीसे ब्रह्मचर्य महाघ्रत पालने में समर्थ हो सकता है। पांचवें गुणस्थानमें लज्जा व भय रहता है ६वे में कुछ नहीं रहता, जाता रहता है।
विशेषार्थ-जिन भगवान्की आज्ञाका जो उल्लंघन करता है अर्थात् उसका आदर नहीं करता या उसकी परवाह नहीं करता--विरुद्ध चलता है वह निर्लज्ज या निर्भय कहा जाता है । और जो जिनाज्ञाका पुरा पालन करता है वह चिर्लज्ज नहीं है-धीठ नहीं है भक्त है । सदनुसार भगवानको आज्ञानुसार जो परद्रम्यसे या रागादिसे सम्बन्ध छोड़ देते हैं एवं एकत्त्वविभक स्वरूपसे सम्बन्ध जोड़ लेते हैं वे हो सच्चे लज्जालु हैं। लज्जावत है) और जो परसे सम्बन्ध नहीं तोड़ते जोड़े रहते हैं वे निर्लज्ज है ऐसा समझना चाहिये। लज्जाका अर्थ यहाँ पर आदर व श्रद्धा करना है, किम्बहुना । ऐसी स्थिति में वेश्या आदिसे सम्बन्ध जोड़ना महानिर्लज्जता है जो सर्वथा अनुचित है । अन्यत्र सागारधर्मामृत आदिमें इस सम्बन्धका विवेचन अग्राह्य है बह जबसा नहीं है लोकविरुद्ध प्रतीत होता है विचार किया जाय-संगति नहीं बैठती इति ।
स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षामें टीका इस प्रकार है-~~० ३३७-३३८
'गमन' जघनस्तनबदनादिनिरीक्षणसंभाषणहस्तकटाक्षादि संज्ञाविधान इत्येवमादिकं अखिलं रागित्वेन दुश्चेष्टितं ममनमित्युच्यते । अर्थात् गमनका अर्थ रमण नहीं होता रामष्ट्रिसे देखना आदि होता है। अतः वह भो ब्रह्मचारीके लिये वर्जनीय है, अस्तु । ब्रह्मचारीको स्पर्शन और रसना इन दो इन्द्रियोंको वशमें रखना- उनपर विजय पाना नितान्त आवश्यक है, ये दोनों सबमें प्रधान हैं, बड़े-बड़े अनर्थ इन्हींके द्वारा होते हैं शास्त्रों में अनेक उदाहरण हैं ।।१८६।। आगे.परिग्रह त्याग ( परिमाण ) अणुवतके पाँच अतिचार बतलाते हैं ।
वास्तुक्षेत्राष्टापदहिरण्यधनधान्यदासदासीनाम् । कुप्यस्य भेदयोरपि परिमाणातिक्रमा पंच ।।१८७॥
१. परविवाहकरणेस्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनागक्रीडाकाभतीवाभिनिवेशाः ॥२८॥
तत्वा सू० ०७