Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

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Page 389
________________ રક पुरुषार्थसिद्धार्थ करना व्रती छोड़ देता है इत्यादि सब विवेकशीलता है अर्थात् व्रतमें यथाशक्ति दोष ( अतिचारटाँका बट्टा ) न लगने पावे ऐसो चेष्टा वह करता है । व करना चाहिये तभी बुद्धिमानी है—विवेकशीलता है || १८७ |1 आगे - दिग्बत ( गुणवतके भेद ) के ५ पाँच अतिचार बतलाते हैं । ऊर्ध्व मधस्तात्तिर्यग्व्यतिक्रमाः क्षेत्रवृद्विराधानम् । स्मृत्यन्तरस्य गदिताः प्रचेति प्रथमवीर ॥ १८८ ॥ पद्म नीचे ऊँचे और बगल में, सीमा घटा बढ़ा लेना । मर्यादाको भूल रागले बाहिर भी जाना माना || नई स्मृतिकै कारण पुन: सीम सुकरंर भी करना | इस विष अतिचार हैं पाँचों, दिग्धतमें इनको तजना ॥ १८८ ॥ अन्वय अर्थ -- आचार्य कहते हैं कि [ अर्ध्व मधस्तात् तिर्यग्व्यविक्रमाः ] ऊपर ( ऊर्ध्वदिशामें ) अध: ( पाताल लोक में ) तिर्यक्— मध्य लोकमें सीमाका उल्लंघन करना अर्थात् इच्छानुसार प्रयोजनवश सीमा घटा बढ़ा लेना ( ये तीन अतिचार हैं ) तथा [ क्षेत्रवृद्धिः ] प्रयोजनश सीमा को और लम्बा कर लेना एवं [ स्मृत्यन्तरस्याधानम् ] पहिलेको याददाश्त ( खबर ) भूलकर नवीन याददाश्त से पुनः सीमा मुकर्रर करना [ इति प्रथमशीलस्य पंच गदिताः ] इस प्रकार पहिले शीलके अर्थात् दिन पाँच अतिचार बतलाए गये हैं ॥ १८८ ॥ भावार्थ - दिग्नामक शीलव्रतमें दशों दिशाओंको सीमा जीवन पर्यन्त के लिये नियत ( मुकर्रर ) की जाती है - फिर उससे बाहिर कोई व्यवहार ( जाने-आने बुलाने भेजने आदिका ) नहीं किया जा सकता ऐसा नियम है। अतएव जो दिग्वती भूलसे ("अज्ञानसे ) या प्रमाद ( तीव्रराग या कषाय ) से पेश्तर की हुई प्रतिज्ञा ( मर्यादा ) को भंग कर देता है वह अपने व्रतमें कलंक या धब्बा लगाता है, जिससे उसको अपने व्रतका पूरा फल नहीं मिलता । त्रुटि हो जाती है | इसका कारण सिर्फ चारित्रमोहका तीव्र उदय है, सम्यग्दर्शनका दोष नहीं है, वह तो बराबर उसको सावधान करता रहता है- हिदायत देता रहता है कि ऐसा कार्य मत करो यह तुम्हारे रूपके बिरुद्ध है, यह सब हेय है इत्यादि । परन्तु शक्तिहीनता के कारण या असह्य पीड़ा या वेगके कारण वह च्युत जाता है अर्थात् व्रतमें छेद कर देता है, परन्तु पश्चात्ताप ( विरक्ति ) अवश्य करता है और आगे यथासंभव उसका त्याग भी कर देता है। ऐसा करते-करते वह साध्यको सिद्धि १. उल्लंघन करना अर्थात् घटबढ़ा लेना । २. पहिले अधिक क्षेत्र बढ़ा लेना । ३. उक्तं च-- ध्वधिस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्र वृद्धि स्मृत्यन्तराधानानि ॥ ३० ॥ ० सू० अ० ७

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