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रहते हुए होते हैं अतएव वे महापापके घर हैं ऐसा समझना चाहिये । प्रयोजनभूत कार्यों में अतिचार का लगना संभव है किन्तु अप्रयोजनभूत कार्योंमें प्रमाद या अज्ञानवश दोष लगाना उचित व क्षम्य नहीं है, अतएव उसका त्याग कर देनेसे हो एकदेश निरतिचारता सिद्ध होती है, क्योंकि प्रयोजनभूत कार्यों में तो अतिचार लगता ही रहता हैं अतः उसमें सर्वथा निरतिचारता नहीं बनती किम्बहुना यहाँपर क्रियारूप कार्यों की अपेक्षासे ( चरणानुयोग से ) अतिचारोंका विचार मुख्यतासे है । क्योंकि भावको अपेक्षा मुख्यता चरणानुयोग में ( लोकाचार में ) नहीं रहती । वह करणानुयोग में रहती है ||१८५||
ब्रह्मचर्यावत ( कुशील स्यागके ) पाँच अतिचार बतलाते हैं ।
स्मरतीवाभिनिवेशाऽनङ्गक्रीडान्यपरिणयनकरणम् । अपरिगृहीतेतयोर्गमने त्वयोः पंच ।। १८६ ॥
पहा
तो विषयकी इच्छा रखना, कोड़ा करन अमंगों से । करनेसे अरु इस्aरिका घर जाने से || ह्मचर्य, उनको दूर करें ।
पर विवाह दोष होत आत्मशुद्धि होने पर ही पार होत संसारधीः ॥१८६॥
अन्य अर्थ - आचार्य कहते है कि [ स्मरामि निवेशः इनंगीहाम्यपरिणयनकरणम् ] काम सेवन या मैथुन सेवनकी तीव्र अभिलाषा ( वांछा रखन्दा, काम सेबनके अंगों ( योनि आदि ) से भिन्न अंगों (हस्त मैथुन आदि ) के द्वारा इच्छा पूर्ण करना ( गुदा मैथुन भी इसी में शामिल है ) अन्य मनुष्य का विवाह करना ( विषय सेवन कराना ) तथा [ अपरिगृहीतेतस्योः इरिकयोः गमने पं] व्यभिचारिणी या पेशाकार भ्रष्ट स्त्रियों ( वेश्या आदि स्वतन्त्र वा परतन्त्र के यहाँ जाना बुलाना - उनसे सम्बन्ध स्थापित करना ( ये दो अतिचार हैं ) कुल पाँच अतिचार ब्रह्मचर्याणव्रत को नहीं लगाना चाहिये त्याग देना चाहिए ।। १८६ ।।
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भावार्थ सप्तम प्रतिमाघारी ब्रह्मचर्याणुव्रतो को स्त्रीमात्र से संबंध विच्छेद कर देना चाहिये, चाहे वह वेतन हो या जड़ हो या मनुष्यणी हो या तिरश्ची हो या देवी हो या चित्रामकी
१. कामसेवन या विषयसेवन ।
२. कामसेवन के अंगों ( योनि आदि ) से भिन्न अंग हस्तादि ।
३. विवाह ।
४. व्यभिचारिणी स्त्रियां - बजारू या वेश्याएँ ।
५. व्रताभिलाषी ।
६. संसार समुद्र |