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अतिचार करण
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नहीं बतलाया गया, असत्यका दूषण क्यों बतलाया गया ? इसका समाधान यह है कि खाली बचन या कथनका प्रयोग किया गया है-वीज ( धरोहर नहीं चुराई गई है अतः वचनमात्र असत्य है - वचनकृत अपराध वह है कायकृत नहीं है, किम्बहुना | ऐसा ही सर्वत्र समझना चाहिये
विशेषार्थं अन्य मतवालोंने इस तत्वको न समझकर स्वार्थवश संसार में अन्याय व अधर्मका भारी ( अजहद ) प्रचार किया है । वे स्वयं स्वेच्छाचारी असंयमी व्यसनी थे । अतएव मनमाने पाप किये हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, मद्य, मांस, मधु आदिका सेवन किया, जिससे बदनामी इज्जती होना संभव है-प्रतिष्ठा घट सकती है ? इस भयसे या तीव्र कषावसे उन्होंने कलमके जोरपर उक्त पाप पोषक (पायोंको उचित बतानेवाले ) अनेक मनगहन्त वास्त्र (स्मृतियाँ बगैरह ) बना डाले, जिनमें उक्त पाप कार्य करनेको विधि ( आज्ञा ) है । इस तरह मिथ्यात्वका प्रचार व प्रसार उन्होंने किया है अर्थात् अपने पापको छिपाने के लिए संसारको पापी बना दिया है यह दुःखकी बात है । फलत: भूल व प्रमाद यदि कोई अपराध हो जाय तो उसकी पुष्टि कभी नहीं करना चाहिये न अन्य लोगोंको संघ बनाकर उत्साहित करना चाहिये, यह बड़ी समझदारी विवेकशीलता है, अवमंसे हमेशा बचना चाहिये । मिथ्योपदेशका यही मतलब है --असत्यका प्रचार करना, वह वर्जनीय है, किम्बहुना ।
यहाँ प्रश्न हो सकता है कि यदि कोई व्रती सम्यग्दृष्टि होकर भी मिथ्या उपदेश देता है तो उसको मिध्यादृष्टि कहना चाहिये अतिचार नहीं कहना चाहिये क्योंकि सम्यग्दृष्टि मिथ्या उपदेश नहीं दे सकता इत्यादि । इसका उत्तर ऐसा है कि सम्यग्दृष्टिकी सम्यक् श्रद्धा में परिवर्तन नहीं होता वह अटल ही रहती है किन्तु शक्तिहीनतासे या कषायवण आचरण अन्यथा हो जाता है, जिसका उसको दुःख रहता है, पश्चाताप करता है. उसे हे ही समझता है, उपादेय नहीं समझता इत्यादि विशेषता पाई जाती है। कषायके वेगमें योगों ( वचन व काय ) की प्रवृति अन्यथा हो जाना आश्चर्यजनक नहीं है-वह शक्य व संभव है किन्तु मनोयोगको प्रवृत्ति ( श्रद्धारूप ) कभी अन्यथा नहीं होती जबतक सम्यग्दर्शन मौजूद रहता है इत्यादि । यह सत्य समाधान समझना चाहिये | इसी तरह रहस्यको बातको प्रकट कर देना आदि आचरण विरुद्धता अतिचारमें ही शामिल समझना - सम्यग्दर्शनको घातक नहीं समझना यह निर्धार है, अस्तु । सम्यग्दर्शन के साथ कषायोंका अस्तित्व बहुत दूर तक रहता है फिर भी सबंधाती स्पर्धकों का उदय न होनेसे व सिर्फ देशघाती स्पर्धकोंका उदय होने में 'सम्यग्दर्शन व व्रत संयम' से वह भ्रष्ट नहीं होता--- वे सब सदोष बने रहते हैं, उनमें चलमलपना रहता है इत्यादि । क्षायोपशमिकचारित्र या संयममें ऐसी ही अवस्था होती है, किम्बहुना । वह उन सबका वेदक या ज्ञाता ही रहता है. श्रद्धालु नहीं रहता या उसकी श्रद्धा में परिवर्तन नहीं होता यह सारांश है ।। १८४ ॥
अणुव्रत पाँच अतिचार बतलाते हैं ।
प्रतिरूपव्यवहारः स्तेननियोगस्तदाहृतादानम् |
राजविरोधातिक्रमहीनाधिकमानकरणे
च ।। १८५ ।।