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पुरुषार्थसिद्ध्युपायें
निमित्तसे बुरे परिणाम होते हैं । उसमें भी भोजनके निमित्तोंका प्रभाव ( असर ) खासकर आत्मा पर पड़ता है 'अतएव भोजनका शुद्ध होना सबसे जरूरी है। तभी तो श्लोकमें मुनियोंको देनेवाला भोज्यद्रव्य उत्कृष्ट होना बतलाया है जिससे रागद्वेषादि विकारोभाव न हों और तप एवं स्वाध्यादिमें बाघा न आवे न स्वास्थ्य बिगड़े अन्यथा निमित्तताका दोष दाता पर होगा अर्थात् दाता उस दोषका अपराधी सिद्ध होगा । मूलघाट में इके एक दृष्टान्त दिया गया है कि जिस प्रकार कोई शिकारी थोडेसे पानी ( गड्ढा ) में मौजूद मछलियोंको बेहोश करके पकड़नेका इरादा रखकर कुछ मादक द्रव्य ( मदिरा आदि ) उसमें डालता है। उस जलको मछलियाँ पोती है और साथ-साथ मेंढक भी पीते हैं। परन्तु फलस्वरूप मछलियां बेहोश या मदोन्मत्त हो जाती हैं, उन्हें शिकारी आसानीसे पकड़ लेता है किन्तु मेंढक मदोन्मत्त नहीं होते न उन्हें वह पकड़ता हैं। इसका सारांश, उद्देश्य या इरादा के अनुसार फलका लगना है अर्थात् उद्देश्य ( संकल्प ) का असर अवश्य पढ़ता है। मछलियोंको बेहोश करनेका इरादा शिकारीने किया था अतएव उनपर ही मदिराका प्रभाव पड़ा, उनके साथमें रहनेवाले मेंढकों पर नहीं पड़ा |
ऐसो स्थिति ( न्याय) में पात्रों को या मुनियोंको 'उद्दिष्ट' भोजन देना ( उनके निमित्तसे बनाया गया भोजन देना ) मना है - निषिद्ध है, नहीं देना चाहिये, न जानकार मुनिको वह der चाहिये यह विधि ( आगमाज्ञा ) है | इसके विरुद्ध करना या चलना बड़ा अपराध है । किम्बहुना | ध्यान दिया जाय । व्रतका पालना सरल नहीं है-खांडेकी बार है, लड़कों का खेल नहीं है । जो शक्ति व योग्यता रखते हों उनको हो उच्च व्रत पालना व धारण करना चाहिये तथा उनको ही दीक्षा देना चाहिये, सभी मनचलोंको नहीं, यही पुष्टि श्लोक नं० १८ में पेश्तर की गई है । जिन्हें जिनवाणी पर आस्था (श्रद्धा) और भय होगा वे ही उसका आदर और पालन करेंगे, सभी नहीं कर सकते यह तात्पर्य है । भावुकता में आकर यहा तद्वा करना अनुचित है ॥ १७० ॥
आचार्य पात्रोंके भेद बतलाते हैं, जिन्हें दान दिया जाता है।
पात्रं त्रिभेदमुक्त संयोगो मोक्षकारणगुणानाम् । अविरत सम्यग्दृष्टिः विरताविरतरच सकलविरतश्च ।। १७१ ।।
पद्य
मोक्षमार्गकी प्राप्ति जिसे, हो वह ही पात्र कहता है ।
तीन भेद उसके होते हैं, अविरत आदि विख्याता है |
१. जह मच्छयाण पसदे मदद मच्छया हि मज्जन्ति ।
ण हि मंडूगा एवं परमदृकदे जदि विशुद्धो ॥ ६७ ॥ मूलाचारविशुद्धि अधिकार
२. चतुर्थ गुणस्थानवाले जघन्य पात्र ।
२. पाँचवें गुणस्यानवाले मध्यम पात्र ।
४. छठवें आदि गुणस्थानवाले उत्तम पात्र ।