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शिक्षाप्रकरण इसीके अन्तर्गत अनुष्टुपुश्लोक जन्यमध्यमोत्कृष्टभदादविरतः सुक् ।
प्रथमः क्षीणमोहोऽस्यो मध्यमो मध्यमस्तयोः ॥१५५।। अर्थ-चतुर्थ गुणस्थानवाले जघन्यपात्र हैं, और १२ बारहवें गुणस्थानवाले उत्तमपात्र हैं तथा चतुर्थ और बारहवेके बीचवाले अर्थात् ५ वेसे ११ वें तक गुणस्थानवाले जीव मध्यमपात्र हैं ऐसा समझना चाहिये ॥१४||
(३) च--
अमृतचन्द्राचार्यका मत श्लोकनं १७१में लिखा ही है ---- त्रिभेदमक्तभिस्थादि ।
नोट.... पूर्वोक्त प्रकार कुछ मतभेद आचार्योंमें परस्पर पाया जाता है, उसे समन्वित करना चाहिये । न्यायके अनुसार सबसे स्थविर आचार्य कुन्दकुन्दका मत अनुकरणीय व मननीय है-- किम्बहुना ! उसीसे मिलता-जुलता मत्त स्वामी कार्तिकेय जीका भी है ऐसा हमारा ख्याल है । अतएव बहुचचित मतको श्रेष्ठ स्थान दिया जाना चाहिये ॥ १७१ ॥ आचार्य आगे दानका फल बतलाते हैं । यथा---
हिंसायाः पर्यायो लोभोत्र निरस्यते यतो दाने । यस्मादतिथिवितरणं हिंसाध्युपरमणमेवेष्टम् ॥१७२।।
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पात्रदान से देखो, लोभकयाथ विनती है। लोम कषायरूप है हिंसा--दान देससे टलती है । इसीलिये मैदान वितरना.....पात्रों को बतलाया है।
पुण्यबंध अरु हिंसा टलना दो विध लाभ सुझाया है ।।१७२।। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ अत्र दाने हिंसायाः पर्याय: लोभः निरस्यते इस पात्रदान के देनेसे हिमा ( पाप ) को पर्याय लोभ कषायका अभाव या विनाश होता है। [ सम्मात अतिधिवितरणं हिंसान्युपरमणमेचेष्टम् ] इसलिये पात्रों ( अतिथियों को दान देना मानो हिसाका छूटना अथवा अहिंसा का पालना ही है। ऐसी स्थिति में दानका देना अनिवार्य है, देना चाहिये ।। १७२ ।।
भावार्थ---श्रावकको शोभा देवपूजा-पात्रदान, गुरूपासना आदिके बिना नहीं हो सकती, अतएव देवपुजादि कार्य करना श्रावका मुख्य कर्तव्य है। इसके विपरीत जो दानपुण्य, यातिलाभ . पूजादिके निमित्तसे या उद्देश्यसे किया जाता है, उसका फल भी विपरीत होता है क्योंकि वह तीनकषायसे किया जाता है अर्थात् ख्यातिलाभ पूजा ( प्रतिष्ठा ) की चाह होना तोड़कषाय