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शिक्षा करण
Tere are परिकर आदिको नहीं देखा जाता है, कौन कैसा है इत्यादि सिर्फ बुद्ध भोजन पर दृष्टि रखता है - भोजन कर पीछे है। जैसा जगलमें जाकर antar शोभा आदि नहीं देखतो उसका ध्यान धरोवर पर ही रहता है । (३) अनमृक्षणवृति अर्थात् जैसे गाड़ीको चलाने के लिये ओंगन या चिकनाई देने की जरूरत होती है किन्तु धोका ओंगन है या तेलका इसकी जरूरत नहीं है, उसी तरह मुनिको रूखा-सूखा शुद्ध भोजन का ही प्रयोजन रहता है दूसरा नहीं ( ४ ) गर्तपुरणवृत्ति अर्थात् जैसा गड्ढा पूरनेके लिये कैसे भी पत्थर कचरा डालने की जरूरत रहती है वह गड्ढा पूर दिया जाता है, उसी तरह अतिथि साधु रसविरस ठंडा गरम भोजनका ख्याल न रखकर स्वभावसे उदर भरता है इत्यादि विशेषता सुलि, भोजनादि में रखते हैं। इस प्रकार समयपरिणामी साधुको दान देनेमें श्रावको अपना अहोभाग्य समझना चाहिये अर्थात् मेरा जीवन सफल हुआ, ऐसा मानना चाहिये क्योंकि भाग्वान्को ही पात्रदानका अवसर मिलता है, जिसके सम्पूर्ण योग्यता हो वह योग्यता पुण्य वा धर्मसे ही प्राप्त होती है अतएव दानपुण्य अवश्य करना चाहिये किम्बहुना | उससे हिंसापाप नहीं लगता, पुष्पबंध होता है। लोभी पापबंध करता है अर्थात् लोभरूप विभावभाव से स्वभावभावका घात करता रहता है और पुण्यका
भी नहीं होता यह दुहरी हानि लोभी को होती है लोकाचार भी वह होन दृष्टिसे देखा जाता है अतएव पात्रदान अवश्य देना चाहिये || १७३ ॥
आचार्य यथार्थ त्यागी व दानी कौन है और किसको उसका अहिंसा फल मिलता है यह बताते हैं ।
कृतमात्मार्थं मुनये ददाति भक्तमिति भावितस्त्यागः । अरतिविषादविमुक्तः शिथिलितलोभो भवत्यहिंसेच ।। १७४ ।।
पद्य
arraist gear जो नित अपने ऐसा दाता अपने खातिर बना दुःख संकोच न सभी असा
मन में रखता है । भोग्य दे देता है ॥
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होता उसको निर्लोभी वह होता है। पालन कर सार्थक नाम ज करता है ।। १०४ ।।
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ भावितस्त्यागः आरमार्थ कृतं भर्फ मुनयेति ] जो श्रावक त्याग या पात्रदानको भावना या प्रबल इच्छा रखता हो और खुद अपने लिये बनाया गया आहार (भोजन) भी निःसंकोच हो उदारतापूर्वक मुनिको दे देता हो तथा अतिविषादfare ] दुःख और पछतावा कतई न करता हो । [ शिविलितलोभः एव अहिंसा भवति ] वही उदारपरिणामी श्रावक निर्लोभी | दामी ) होता है और उसके ही अहिंसाव्रत पलता है ऐस समझना चाहिये || १७४ ॥
भावार्थ -- मनुष्य को या प्राणिमात्रको भोजन ( खाद्य ) सबसे प्यारा पदार्थ हैं उसको मौके