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पुरुषार्थसिद्ध्युपाय
कहलाती है, जो त्याज्य है, उसके पीछे बड़े-बड़े त्याग ( दान आदि ) प्राणी कर डालते हैं, उनके करने में वैराग्य या अरुचि नहीं होती न परोपकारकी भावना होती है अतः वह तोत्रकषाय है ऐसा समझना चाहिये अस्तु । सच्चा दान वही है जिसमें किसी तरहका लोभ ( बाह न हो अर्थात् ख्याति ( लोकप्रसिद्धि ) लाभ ( धनादिककी प्राप्ति ) पूजा ( नामवरी-आदरसत्कार) की बांछ न हो किन्तु लोभ नष्ट हो जाय, और फलस्वरूप आत्मस्वभावका घात न होनेसे 'अहिंसा' धर्म पले वस, वही दान है ऐसा समझना चाहिये। अरे ! फल मिलना तो आनुषंगिक रहता है और वह परिणामोंके अनुसार हुआ करता है, चाहे उसकी चाह ( आकांक्षा ) की जाय या न की जाय, वह तो मिलेगा ही निश्चित है ! तब माँग कर नीचा क्यों बनना ? बिना मांगे ( चाहे ) मिलने वालोंको वह उचित नहीं है- शोभा नहीं देता यह तात्पर्य है । फलतः निरपेक्ष होकर पात्रदान देना आवश्यक है— गृहस्थ श्रावकका कर्तव्य है ( मध्यम श्रावक तक कर सकता हैं । दान देते समय भक्तिस्तुतिरूप प्रशस्त राग ( शुभराग ) होता है जिससे पुण्यका बंध भी होता है। अतएव संवर निर्जरा पुत्रको करनेवाला पात्रदान अवश्य देना चाहिये । यों तो श्रावकके छहों कार्य ऐसे ही हैं ||१७||
आचार्य आगे पात्रदान न करनेसे हानि बतलाते हैं---
गृहमागताय गुणिने मधुकरवृत्त्या परानपीडयते । वितरति यो नातिथये स कथं न हि लोभवान् भवति १ ॥ १७३ ॥
पक्ष
बिना बुलाये आनेवाले गुणनिधिके जो धारी हैं। अमर कियावत् लेनेवाले परपीड़ा परिहारी हैं |
ऐसे यतिको नहि देता जो भोजनदान आदि श्रावक । वह लोमी निन्दा पाता है, हिंसापाप करत व्यापक ३३१७३॥
अन्वय अर्थ आचार्य कहते हैं कि [ यः गृहमागताय ] जो श्रावक विना निमंत्रण दिये वरपर आनेवाले ( स्वयं ही भिक्षार्थ चर्या करनेवाले और [ मधुकरवृत्या परानपीडयते ] अपनी मधुकरो वृत्तिसे दूसरे दाता आदि जीवोंको दुख बाधा नहीं पहुंचाते । संक्लेश परिणाम नहीं करते ) जैसा कि भौंरा फूलों पर बैठकर मात्र रस लेता है किन्तु फूलों को नुकसान नहीं पहुंचाता | तथा [ गुणिने अतिषये ] महान गुणी ऐसे अतिथि अर्थात् उत्तमपात्र मुनि ( अभ्यागत अतिथि ) को [ न हि वितरति ] आहारादि नहीं देता अर्थात् अपने लिये बने भोज्यमेंसे - हिस्सा नहीं बैदाता [, सः कथं भवान् न भवसि ] वह श्रावक अत्यन्त लोभो नहीं होता क्या ? अवश्य लोभो ब हिंसक होता है व कहना चाहिये || १७३ ||
भावार्थ-साधु या मुनिको वृत्ति या चर्या मुख्यतया ४ चार तरहको बतलाई गई है ( १ ) "भ्रामरीवृत्ति ( जो अभी बतलाई है ) ( २ ) गोचरीवृत्ति, जिसमें मुनि नोची दृष्टि किये हुए
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