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सक्सेनाप्रकरण
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नित्य मरण (२) तद्भवमरण । नित्यमरण प्रतिसमय जो आयु और श्वासोच्छ्वासका वियोग होता है वह कहलाता है और तद्भव मरण-जो अन्त समयमें आयु और श्वासोच्छ्वासका पूर्ण वियोग होता है वह कहलाता है । फलतः सल्लेखना ( मारणान्तिकी) करना क्यों जरूरी है ? दृष्टान्त द्वारा इसे बतलाते हैं ।
जिस प्रकार देशान्तर में संचय किये हुए द्रव्य (धन ) को साथ में ले जानेके लिये नौका यदि साधनकी जरूरत रहती है, विना साधनके वह साथ नहीं ले जाया जा सकता। यदि कहीं उसको दूसरेके सुपुर्द कर दिया जाय तो वह पुनः प्राप्त न होगा वही हजम कर लेगा इत्यादि । इसी तरह मारणान्तिकी सल्लेखना ही परभवमें धर्मधनको ले जाने में नौकाके समान साधन है । यदि उस समय सल्लेखना ( समाधि ) न की जाय तो परिणाम बिगड़ सकते हैं, जिससे दुर्गति हो सकती है, जीवन में कमाया हुआ ( अर्जित किया हुआ ) धर्मंधन व्यर्थ चला जायगा ऐसा सोचकर मारणान्तिकी सल्लेखना अवश्य करना चाहिये, जिससे धर्मेधनको साथमें ले जाकर सद्गति प्राप्त हो | किम्बहुना | अन्तसमयका सुधारना ही कर्त्तव्य पालन करना है । उस समय जीवको भारी farmer और चिन्ताएँ व मोह होता है जब प्राण छूटते हैं, जिससे दुर्गतिका बंध होता है, ( स्वभावभावका घात होकर विभावभाव उभड़ते हैं ) और फलस्वरूप यह होना संभव है कि वह जीव खोटे भावोंके साथ मरकर अपना धर्मधन खो देवे । अतएव sent सुरक्षाके लिये अन्तसमय में भाव या परिणाम नहीं बिगड़ना चाहिये यह उपदेश हैं, परन्तु उसके लिये पूर्व अभ्यासकी नितान्त आवश्यकता है ऐसा जानना चाहिये कि जीवनकी सफलता इसी में है अस्तु, यथार्थतः यह आत्मसाधनाका कार्य शुद्धाय द्वारा जिसने अपने शुद्ध स्वरूपको भलीभांति जान लिया हो, वही निर्मोही होकर कर सकता है, दूसरा नहीं । सामान्यतः धर्मगुरु आचार्यका सभी जीवोंके लिये यही उदार उपदेश है कि कम-से-कम जैनधर्मी श्रावकको अन्तिम समय ( मरते वक्त } परिग्रहादित्यागकर अती मरण तो करना ही चाहिये । किम्बहुना ॥ १७५॥
आचार्य सल्लेखनाको प्रतिज्ञा या भावना करनेका फल बतलाते हैं ।
मरणान्ते sarees विधिना सल्लेखनां करिष्यामि । इति भावना परिणतोऽनागतमपि पालयेदिदं शीलम् ॥ १७६॥
पद्य
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विधिपूर्वक लेखन करनेका जो प्रण निध्य करते हैं करनेके पेश्वर ही वे जन नित सरलेखन घरते है |
१. अग्रिमकाल ( भविष्य ) |
२. स्वभावभाव या सल्लेखनाको सामना 1