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पुरुषार्थसिदधुपा
ले
दो
होती है निस अरु अन्ससमयकी भी। दोनों विश्व करने से भजन करस हानि संसूतिकी मी ॥ १७६ ॥
अन्य अर्थ - आचार्य कहते हैं कि जो जीन ( व्रती ) [ अहं मरणान्ते वयं विधिना करिष्यामि | हम मरण के अन्त समय में विधिपूर्वक सल्लेखना अवव्य करेंगे [ इति भावनापरिणतः ] ऐसो भावना रखता है या प्रतिज्ञा करता है वह मानो [ श्रनागतमपि इदं शीलं पालयेत ] भविष्यकालीन स्वभावभावकी साधना भी वर्तमानमें करता है अर्थात् कमिक सल्लेखना करता है ( प्रतिक्षण मन्दकषाय और वैराग्यको प्रमुखता होनेसे ) वर्तमान में आगामी कर्मोका संवर और निर्जरा बराबर करता है ना विभावसार से स्वास प्रकट करता है ऐसा खुलासा
समझना चाहिये || १७६ ॥
भावार्थ - ऐसा कहा जाता है कि भावना 'भवनाशिनी' अर्थात् बारंबार भावना या चिन्तन करने से अथवा प्रयोग करने से कभी न कभी प्रयत्न सफल अवश्य होता है । और मुमुक्षुजन भी लक्ष्यको भावना द्वारा जगाते रहनेसे ( विस्मरण न होने देनेसे ) लक्ष्य सिद्धि करने में समर्थ हो जाते हैं - संसारसे छूट जाते हैं, अतएव भावना साधन बड़ा उपयोगी है | अरे ! करने के पहिले मात्र भावना करना भी कठिन है क्या ? तब वह पुरुषार्थी कैसा ? जो यह भी नहीं करता वह पार भी नहीं होता, यह निश्चय समझना चाहिये । प्रतिज्ञाधारी भावनाके बलसे बहुत अनथेस बन जाता है यह सात्पर्य है । विचारवान् विवेकी एक-एक समयका हिसाब लगाता है क्योंकि मनुष्यजीवन महान कीमती है मोक्ष ले जानेको वहीं समर्थ है। यह बार-बार जबतब नहीं मिलता उसके मिलने का समय ( काललब्धि ) निश्चित है अतः इसे व्यर्थं नहीं खो देना चाहिये तथा सल्लेखनाको उपयुक्त समय पर करना चाहिये यह ध्यान रहे ॥ १७६ ॥
आगे सल्लेखनाके सम्बन्ध में वादो शंका ( तर्क ) करता है उसका ठोस उत्तर ( अखंड जबाब ) आचार्य देते हैं ।
मरणेऽवश्यं भाविनि कषायसल्लेखनातनुकरणमात्रे । रागादिमन्तरेण व्याप्रियमाणस्य नात्मघातोऽस्ति ॥ १७७ ॥
१. संसारका स्थागरूप क्षय ।
२. उक्तं च-
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरासि रुजाया व निःप्रतीकारे ।
धर्मा
विमोचनमाः सल्लेखनामार्याः ॥ १२२ ॥ रत्न० श्रा० ॥
अर्थ :- जिसका प्रतीकार ( बचाव ) होना असंभव हो ऐसा दुर्भिक्ष ( अकाल ), उपसर्ग, रोग, बुढ़ापा, उपस्थित हो जाने पर धर्मप्राप्तिके उद्देश्यसे शरीरसे ममत्व छोड़ना अर्थात् कषाय घटाना सल्लेखना कहलाता है यह भाव है ।