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शिवाय सल्लेखना धारण करनेका मुख्य प्रयोजन क्या है यह बताते है।
( अहिंसावतका पालना है) नीयन्तेऽत्र कषायाः हिंसाया हेतयो यतस्तनुताम् । सल्लेखनामपि ततः प्राहुरहिंसाप्रसिद्धयर्थम् ॥ १७९ ॥
पथ हिंसाकै कारण काय है, उनको कमनी करनेसे । सल्लेखनमत नाम होल है, अर्थ 'अहिंसा' पलने से । उसका मुख्य लक्ष्य ये ही है--बती अहिंसावत पाले ।
परम अहिंसाधर्म प्राप्तकर, मुकिरमा माला डाले । १७९ ॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ अत्र यतः हिंसाया हेतवः कषायाः समुताम् नीयम् ] अब सल्लेखनावतमें हिमाके कारणभूत कषायोंको कमती किया जाता है अर्थात् छोड़ा जाता है [ सतः सल्लेखनामपि अहिंसामम्मि यथं प्राहुः ] तब सल्लेखनाको भो प्रकारान्तरसे अहिंसाकी प्रसिद्धि करनेवाली समझना चाहिये अर्थात् सल्लेखनाका ही दूसरा नाम 'अहिंसा' है-अर्थभेद कुछ नहीं है अतः वह करना चाहिये ।। १७९ ॥
भावार्थ-सल्लेखना-समाधि-सन्यास आदिके मामोंमें व क्रियाओंमें भेद होने पर भी प्रयो जन ( अर्थ । में भेद कुछ भी नहीं है, सबका लक्ष्य एक कषायों ( विभावभावों ) का कमती करना है-जो हिंसाके निमित्त कारण हैं क्योंकि उनसे स्वभावभावोंका घात होता है। फलतः सल्लेखनामें कषायभाव छूटनेसे हिंसा बचती है ( स्वभावभावका घात नहीं होता । और अहिंसावल पलता है यह लाभ होता है ऐसा समझकर सल्लेखना अवश्य-अवश्य करना चाहिये....अहिंसा ही परम धम है ।। १७९ ॥ आचार्य–सल्लेखनाका अन्तिम फल दिखाते हैं।
( उपसंहार कथन) इति यो व्रतरक्षार्थ सततं पालयति सकलशीलानि । वस्यति पतिंवरेव स्वयमेव तमुत्सुका शिवपदश्रीः ॥ १८ ॥
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पध प्रतरक्षा अर्थ विवेकी शीक सदेखन करते है। जसके सबब अहिंसक बनकर मसि को धरते हैं।
१. उच
अन्तःक्रियाधिकरणं तप फलं सकलदर्शिनः स्तुवते । तस्माद्याबद् विभवं समाधिमरणं प्रयतितव्यम् ।। १२३ ॥ रत्न श्रा