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afeerexकरण
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उपादानका कुछ कर सकते हैं, वे अकिचित्कर होते हैं वस्तुस्वभाव सब स्वतंत्र है इत्यादि । यहाँ पर रागद्वेषसे हो उसको ठीक संगति बैठती है विचार किया जाय । संशय या सन्देह करना सम्यगुदर्शनका अतिचार नहीं है, वह तो अनाचार है जो सम्यग्दर्शनको ही नष्ट कर देवे । हो, लौकिक तत्वों में संशय व सन्देह सम्यग्दृष्टिको ज्ञानादिककी कमी से हो सकता है किन्तु उससे मोक्षमार्ग नहीं बिगड़ता । परन्तु यहाँ इस प्रकरणमें मोक्षमार्ग में दोष न लगने या लगने की बात है, उसको ध्यान में रखना जरूरी है, किम्बहुना ।
अतिचारका अर्थ दोष कलंक या बट्टाका लगना होता है । विरागरूप निर्विकल्प सम्यदर्शन में रागादिरूप विकारों । विकल्पों का होना हो बट्टाका लगना है, उससे मोक्षमार्गता बिगड़ती है - वह शुद्ध या निश्चय मोक्षमार्ग नहीं है किन्तु अशुद्ध या व्यवहार मोक्षमार्ग है, अस्तु' । सम्यग्दृष्टि शंकादि कार्य में भी उपादेयता नहीं रहतो, वह उन्हें यही समझता है, उनसे अरुचि करता है-विगारीकी तरह उनमें वह विरक्त रहता है, दत्तचित्त नहीं रहता, अगत्या उसे वह बलात्कार करना पड़ता है, संयोगी पर्यावका वह तकाजा या भाती है, उसको चुकाना उसका कर्त्तव्य है । और मिथ्यादृष्टि उसको थाती या कर्जा नहीं समझता किन्तु उसका स्वामी वह अपने को समझता है उसे वह अपनी विभूति समझता है अतएव उसको कभी स्वप्न में भी नहीं त्यागना चाहता अर्थात् परसंयोगको वह कभी हेय नहीं समझता, उपादेय ही मानता है, ऐसी विपरीतबुद्धि ( वस्तुस्वभावकी अनभिज्ञता ) उसके रहती है यह मूल भेद है । सम्यग्दृष्टि गोलर सम्यक् श्रद्धारूप या भेदज्ञान वैराग्य रूप अविच्छिन्नधारा सदैव बहती रहती हैं, जिससे वह हमेशा सम्हला रहता है च्युत या पतित नहीं होता अर्थात् बाह्य आचरण कदाचित् बिगड़ भी जाता है तो भी वह मिध्यादृष्टि नहीं हो जाता - भीतर से सम्यग्दृष्टि ही बना रहता है किन्तु मिथ्यादृष्टि के भीतर बह भेदज्ञान वैराग्यरूप अविच्छिन्नधारा नहीं बहती, अतएव बाहिर वह कर्म धारा ( रागादिकृत बाह्य प्रवृत्ति ) में बहू जाता हैं पथभ्रष्ट या मार्गभ्रष्ट हो जाता है, उसको हो वह सर्वस्व समझता है, उसीमें दत्तचित्त रहता है, अन्य सब असली कर्तव्य भूल जाता है, नकली आडम्बरमें फस जाता है इत्यादि ।
नोट उक्त पाँच अतिचारोंमें ही शंकादिक आठ दोषोंका अन्तर्भाव हो जाता है अतएक पाँच हो संग्रहनयसे कहे हैं। मल-दोष -अतिचार ये सब एकार्थबाची हैं ऐसा समझना चाहिये ।। १८२ ॥ . आचार्य अहिंसाणुव्रत के ५ अतिचार बतलाते हैं ।
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छेदनताडुनबन्धाः भारस्यारोपणं समधिकस्य । पानानयोश्च रोधः पंचाहिंसात्रतस्येति ॥ १८३ ॥
१. शंकाकांशात्रिचिकित्साम्य दृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतीचाराः ॥२२॥
--तस्वा० सूत्र अध्याय ७ ।