Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

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Page 364
________________ प्रतिमाप्रकरण ३५३ जाती है ( फलतः ) वह देशसंयमो कहलाने लगता है इत्यादि वती जीवन शुरू हो जाता है पिम्बहुना। प्रतिमाएँ धारण करने वाला नैष्ठिक श्रावक । कर्तव्यपरायण ) कहलाता है अर्थात् खाली भावना या विचारवाला वह नहीं होता किन्तु वह बाहिर करके दिखलाता है, जिससे उसपर लोगोंकी आस्था { श्रद्धा हो जाती हैं। साथ हो सम्यग्दर्शन के पांच अतिचार ( श्लोक १८२ में कहे हुए ) भी त्यागता है. नहीं लगाता है। ऐसी दर्शनप्रतिमाधारी बनता है अस्तु । यह एकमात्र पंचपरमेष्ठीको उपासना बाहिर में करता है अन्य कुदेवादिकको उपासना बन्द कर देता है। यथाशक्ति इन्द्रियसंवम व प्राणिसंयम तो पालता ही है । अष्ट मूलगुण के रूपमें ) संसार शरीर भोगोंसे विरक्त रहता है, व्यापारादि करता है, घर में रहता है लेकिन परिणाम बदल जाते हैं भावना दूसरी हो जाती है। बसुनंदी आचार्य इसमें पांच उदम्बर फलों तथा सात व्यसनोका त्याग करना भी बतलाते हैं इत्यादि पाँच अणुव्रतोंका अभ्यास भी करता है। २. यतप्रतिमा-हिंसा आदि ( असंयमरूप । मोटे-मोटे पांच पापोंका निरतिधार त्याग करनेसे दूसरी प्रतिमा पलती है। मोटे-मोटेका अर्थ अप्रयोजन भूत एवं संकलापूर्वक या लोक प्रसिद्ध दिडाई हिसा, झठ, चोरी, कूशील, परिग्रहका त्याग कर देना चाहिये। उससे ( अव्रतो इन्द्रियसंगम व प्राणिसंयम थोडा भी नहों पलता, स्वच्छंद प्रति रहती है। बिवेकरहित आचरण होता है जो पशजीवनके तुल्य है। प्रतप्रतिमाधारी वैमा कार्य स्वयं नहीं करता (प्रतभंगका त्यागी होता है वह जघन्य श्रावक कहलाता है। उसके पंचागततामें अतिचार नहीं लगाना चाहिये तब उसका नाम 'व्रतप्रतिमाधारी' पड़ेगा अन्यथा नहीं। परन्तु वह कुछ अशों तक अप्रयोजनभूत पांचों पापोंका त्यागी होता है जिनका कथम पोछे ( श्लोक नं०४२ से लेकर ९० तक हिंसापायका, श्लोक नं० ९१ से लेकर १०० तक असत्यका, श्लोक नं. १०२ से लेकर १०६ तक चोरीका, इलोक नं० १०७ से लेकर ११० तक कुशील वा, श्लोक नं० १११ से लेकर १२८ तक परिग्रहका विस्तारके साथ ) किया गया है देख व समझ लेना, यह प्रतिमा पाँच अणुव्रतोंसे बनती है अर्थात् पाँच अणुव्रतोंकी निरतिचार अपेक्षा इसमें पाई जाती है अस्तु 1 यह बती व्यापारादि, गणवतोंके साथ करता है ( दिग्वतादि धारण करता है ) तमाम प्रवृत्ति नियमित व बंधन रूप हो जाती है -स्वच्छेद नहीं रहती इत्यादि। इसके गृहविरत व गृहनिरत दो भेद होते हैं। लक्षण स्वस्वोसे भो सम्बन्ध न रभमा गृहविरत है। और सिर्फ स्वस्त्रोसे सम्बन्ध रखना गृहनिरत है। गृहका अर्थ गृहणी है इत्यादि अस्तु । ३. सामायिक प्रतिमा-त्रिकाल निरतिचार सामायिक करनेसे यह प्रतिमा पलती है, १. सम्यदर्शनशुद्धः संसारशरीरभोगनिविणणः । ___ पंचगुरुवरणशरणः पर्शनिकरुलत्त्वपथ्यगृह्मः ॥ १३७ ।। -र० श्रा० समन्तभट्टाचार्य २. निरतिक्रमणमणुवतपंचक्रमषि शीलयप्तकं चापि । धारयते निःशल्यो योऽसौ बलिना यतो पतिकः ।।१३८।। चतुरावर्तनितयः चतु: प्रधामस्थितो यथाजातः । सामयिको द्विनिषधः वियोगशतः त्रिसंध्यमभिवंदी ।। १३६ ॥ ANAN

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