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पुरुषार्थसिद्धथुणय पर किसीको भी नहीं देना चाहता है यह प्राकृतिक नियम है। ऐसी स्थितिमें यदि किसी कारणवश अपना भोजन किसी दूसरेको देना पड़े तो उसे बझ दुःख व पछतावा होता है, जो लोभकी निशानी । सूचक ) है और हिसाको जननो है। इसके विपरीत जो इतना उदार हो कि अभ्यागत के लिये ( मुनिके लिये ) अपना निजी जो अपने लिये ही खास बनाया गया है-ऐसा भोजन भी बिना दुःख व संकोचक दे देवे, उसे वास्तव में मिलोभी समझना चाहिये अर्थात सच्चा निरपेक्ष दानी चही है-वही त्याग व दानको भावना रखने वाला है और फलस्वरूप दानका फल अहिंसा धर्म, उसे ही प्राप्त हो सकता है। उस भोजनसे अतिथिको भी लाभ पहुंचता है अर्थात् उद्दिष्ट भोजन करने का दोष ( अपराध ) उसे नहीं लगता और श्रावक भी निमित्तमात्र होनेसे अवता है। मूलमें यही निर्दोष भोजन है किाबहमा । यह खास तौर से विचारणीय है। यहाँ तक दानी और उसका फल निश्चयसे बताया गया है, इस तरह यह अध्याय समाप्त होता है। जो भोजन अपने लिये बनाया जाय उसको देने में उल्लास (हर्ष व प्रसन्नता ) होता है और पात्रके न आने पर दुःख पश्चात्ताप नहीं होता किन्तु, दूसरोंके लये बनाए जाने पर कदाचित् न भाबें तो खेद होता है पछतावा होता है यह सागश है । अतएव उक्त दोपसे बचना अत्यन्त जरूरी है । फिर क्यों गलती की जाय व दोष लगाया जाय ? यह बुद्धिमानो नहीं है किम्बहुना । कार्य ऐसा ही करना चाहिये जिसमें लाभ हो हानि न हो। निरुद्दिष्ट दान देने से उत्तम पुण्यबंध और अहिंसाको प्राप्ति ये दोनों लाभ एक साथ होते हैं। सुभोगभूमिके व स्वर्मादिके अनुपम सुख पात्रदानसे मिलते हैं ऐसा समझना।
प्रकरणवश पात्रके लिये भोजन विधि सुसस्थपयविष्णदो मिच्छाइदा हुमो मुणेयधो।' खेडे वि ायचं पाणिपतं सचेलस्स ||७|| सूत्रपाहुड कुन्दकुन्दाचार्य णिवेलपाणिवत्तं उवइटुं परमजिणरिदेहि।
पक्की वि मोखमरगी सेसा य अमरगया सब्वे ॥१०11 अर्थ-जो जिणवाणी और उसके अर्थको ( प्रयोजनको) नहीं जानता न मानता है वह मिथ्यादष्टि है----ऐसे मिथ्यादृष्टि मुनिको और वस्त्रधारी त्यागीको भी विनोदके लिये ( प्रदर्शनार्थ भी ) पाणिपात्रमें भोजन नहीं करना चाहिये अर्थात् वजित है। श्रीजिनेन्द्रदेवने दिगम्बर वेषधारी ( नम्नमुनि को ही पाणिपात्रमें आहार करना कहा है कारण कि दिगम्बरबेष हो एक । शुद्ध मोक्षका मार्ग है, दूसरा वस्त्र सहित मा मिथ्यात्व मोक्षका मार्ग नहीं है ।।७।१०॥
आर्यिका और उत्कृष्ट श्रावक ( ऐलक क्षुल्लक ) पाणिपात्र भोजन नहीं कर सकते न खड़े होकरकर सकते हैं-वह स्वांग या नाटकरूप में भी धजित है अस्तु ।'
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विनयके सम्बन्धमें आज्ञा
जो संजर्मसु महिमओ आरमपरिगाहेसु चिचओ वि । सी होइ बंदणीयो स सुरामुरमाणुसे लोए ॥१५॥ सूत्रपाहुष्ट