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पुरुषार्थसिद्धयाय खास फल नहीं मिलता वह दान व्यर्थ जाता है इत्यादि । व्यवहारमयको मान्यतामें भी कुछ अंश सचाईका होना चाहिये तब वैसा माना जा सकता है अन्यथा वैसा नहीं माना जा सकता। तदनुसार 'द्रव्यालगोके यहाँ' सचाई ( सम्यग्दर्शनादित्रय )का कुछ भी अंश नहीं है, अतएव प्रवद्वारनयसे भी 'द्रव्यलिंगी' मोक्षमार्गी नहीं है यह निर्धार है। हाँ, दयादानको अपेक्षास अपात्र आदि दीन दखो सभी जोवोंको दान दिया जा सकता है. उसकी मनाही नहीं है, वह तो करणादान है जो मन्दकषायका फल है अर्थात् कपायकी मन्दतासे होता है, उसमें परोपकारको भावना रहती है, अपने स्वार्थ पूर्तिकी भावना नहीं रहती, यह भन्दकषाय व तीव कषायमें भेद है इसका समझना चाहिये। मूलमें दो भेद पात्रोंके हैं (१) पात्र (२) अपात्र। पात्रों ( सुपात्रों के ३ भेद उत्तम, मध्यम, जधन्य ।। १७१ ।। अपात्रोंके दो भेद (१) कुपात्र (२) अपात्र । लक्षण निम्न प्रकार है !
उत्कुष्टपानमन मारमणुव्रताढ्यं मध्यं धतेन रहितं सुशं जघन्यम् ।
निर्देशनं प्रतनिकाययुत्त कुपात्रं, युग्मोज्झितं नरमपात्रमिदं हि विद्धि ॥ सय ५० आग पात्रों के विषय आचायोका मतभेद बताया जाता है।
((१) उक्तं चसावयगुणहि जुत्ता पमतविरदा य मजिसमा होति ।
जिपमयणे अशरता उपशमशीला महासत्ता॥१६॥ स्वा० अनु अर्थ----पाँचवें व छठवें गणस्थानवाले मध्यम पात्र हैं तथा ७३ गुणस्थानवाल भी मध्यम पात्र हैं। तथा जिनवाणीका अभ्यास करनेवाले श्रुतज्ञानी ८ वें गुणस्थानसे लगाय ११ वै गुण. स्थानवाले शुक्लध्यानी उत्तम पात्र हैं, उपशमधेणा मांड़नेवाले ॥१९६॥ )
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आबासएण जुसो समणी सो होदि अंतरंगप्पा ।
आवासयपरिहींणो समणो सो होदि बहिर) ।। १४५|| नियमसार, कुन्दकुन्दाचार्य । अर्थ---जो अती ६ छह आवश्यक सहित होता है, वह मुनि सम्यग्दष्टि ( अन्तरात्मा ) है । और जो ब्रतो ६. छह आवश्यक रहित होता है, वह व्यलिंगी मुनि है (बहिरात्मा है) मिथ्यादृष्टि है।
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१. सागारधर्मामृत श्लोक ६७ में देखो अध्याय २ दूसरा । यथा--
न्यम्मघ्योसमकुत्स्यभोगजगतीभुक्तावशेषाद्वृषासादकपात्रथितीर्णभुक्तिरसुद्ग्देवो यथास्वं भवेत् । सद्दष्टिस्तु सुपावक्षनसुकृतोद्रेकात् सुभुक्तोत्तमस्त्र मर्यपदोश्नुते विपदं ब्यर्थस्थपाने व्ययः ॥६७।।
अध्याय २