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কখৰিকাজ यह लौकिक विधि है ( व्यवहार पर । ऐसी स्थितिम प्रतीकी या थावकको अभश्यका श्याग भोजनपान में अवश्य कर देना चाहिये अर्थात् श्रावकको आट मूलगुण धारण कर लेना चाहिये, तभी वह स्वयं शुद्धाहारी होकर दूसरोंको दशुद्धाहार दे सकता है अन्यथा नहीं, यह पका नियम है। जो लोग अज्ञानतासे पांव धोने के पानीको आचमन करते हैं या पीते हैं वे शुद्धता खोते हैं। क्या शुद्धाहारी बह धूल कीचड़ भरा जल पी सकता है ? उसके पीनेमें शुद्धता कहाँ रही, जो अशुद्ध गस्ताकी चीजोंसे संयुक्त हो, जरा विवेकसे देखो और विचार करो। किम्बहुमा । मल या मैल कभी शुद्ध या शुचि नहीं होता यह ध्यान रहे | इसी तरह 'अर्चन'का अष्ट द्रव्यसे पूजन करना नहीं है, अपितु शुल भक्तिपूर्वक आहार देना वेयावृत्ति करना गुणगान करना इत्यादि है | उमाको दूसरे शब्दोंमें पूज्य आचार्य समन्तभद्र महाराजने श्लोक नं० ११४ र थामें प्रतिपूजा शब्दसे उल्लेख किया है और श्लोक में० ११३में प्रतिपत्ति शब्दसे उल्लेख किया है जो श्रावकके देवपूजा गुरुपास्ति आदि ६ नित्यकर्मों में शामिल है उसीका नाम गुरुको उपासना है। यदि सप्रमाण कथन मिले तो विपरीत धारणा या श्रद्धाको बदल देना सम्यक्त्व कहलाता है। नामभेद हो जाना सम्भव है परन्तु अर्थभेद नहीं होना चाहिये तभी लाभ होता है अस्तु ॥१६८।।
नोद ---अष्टद्रव्यसे पूजा देवकी ही होती है अन्य ( गुरु )को नहीं होती। इसमें आर्ष प्रमाण 'परमात्मप्रकाश उत्तरार्धमें---
दाण दिसणऊ मुणियरहि, णवि पुज्जिड जिगहु ।
पंच ण दिड परमगुरु किमु होसह मियलाहु ॥१६॥ इसको संस्कृत टोका और भाषाटोका पं० दौलतरामजी कृत में स्पष्ट लिखा है सो देख लिया जाय। भ्रममें न रहा जाय । आचार्य आगे दाताके ७ सात गुण बताते हैं ।
ऐहिकफलानपेक्षा शान्तिनिष्कपटता न भूयत्वम् । अविषादित्वमुदित्वे निरहंकारित्वमिति हि दातगुणाः ॥१६२।।
मौकिकफलाकी चाह बिना अरु अमावान् निश्छल होना । इरिहित प्रसाचित अरु अहंकार शून्यहि होना ।। खेदरहित होना ये सातहि गुणदाताके निश्चित है। फल उनको मिलता है अद्भुम, जो इनार अवलम्बिस हैं ॥१६९।।
१. उक्तं च-परिग्रहमच्चस्थान पादोदकमचनं प्रणामं च |
वाक्कायमनःशुद्धिरेषणशु विश्च विधिमाहुः ।। नवधा भक्ति ।। रन था. श्रद्धातुष्टिर्भक्तिः विज्ञानमलुब्धता मा सस्वम् । यस्यते सप्तगुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति ।। दाता ७ गुण ॥ रत्न श्रा