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शिक्षणप्रकरण
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अश्वप अर्थ आचार्य कहते हैं कि [ ऐहिकफलानपेक्षा, क्षान्तिः, विष्कपटता, अनसूयस्त्रं अि urrears, fनरकारित्वमिति हि दातृगुणाः सन्ति ] इस भवके फलको इच्छा नहीं रखना ( हमारा अमुक कार्य सिद्ध हो जाय इत्यादि नहीं विचारना ) अर्थात् दान देते समय पूर्णसमनिरपेक्ष रहना, क्षमाभाव धारण करना ( स्वभाव रखना | मायाचार या कपट नहीं करना, ईर्षाभाव नहीं करना ( न आने पर दुखो नहीं होता ) प्रसन्नचित्त रहना ( प्रमोद या हर्षं रखना-दिगो न होना ) अहंकार नहीं करना ये सात गुण दातायें होना चाहिये वही समर्थ दाता कहलाता है अन्यथा दोषवाला दाता है, इत्यादि सोच लेना चाहिये ।। १६९ ।।
भावार्थापेक्षण करते समय अपना कर्तव्य समझकर कार्य करे कोई विकल्प वा चिन्ता न करे। यह सोचे कि यदि संयोग होगा तो दे देवेंगे और न होगा तो जब होना होगा तब देंगे क्या बिगड़ेगा वह तो वस्तुका परिणमन है जो यत्नसाध्य नहीं है, अर्थात् पुरुषार्थसे सिद्ध नहीं होता इत्यादि संतोष और समभाव बराबर रखे यह महान् उदारता है जो विकारोभावोंको स्थान नहीं देती इत्यादि । इषीका नाम निष्कामभक्ति है, इसका महान फल मिलता है किन्तु सकामभक्तिका फल अल्प मिलता है अतएव वह वर्जनीय है |
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यस्त पर्व सारं ज्ञान
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ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडित बुधाः ॥ यह नीति है ।
आगे आचार्य देवद्रव्य ( आहारादि ) की विशेषता बतलाते हैं ।
गगद्वेषासंयम मददुःखभयादिकं न यत्कुरुते । द्रव्यं तदेव देयं सुतपःस्वाध्यायवृद्धिकरम् ।। १७० ॥
पथ
रागद्वेष अथिति अरु मद भी दुःख भयादिक नहि हो । ऐसा देय है मुभिको ae स्वाध्याय वृद्धि होवें ॥ ग्रह कर्तव्य दानाका, इतनी बुद्धि होय जिसमें । उक्त दोष उपजें जिस वसे देनेसे नहि फल उसमें ॥ १७० ॥
अन्वय अर्थ आचार्य कहते हैं कि [ यत् यं रागद्वेषा संयम मददुःखभयादिकं न कुरुते ] जो द्रव्य | आहारादि ) पात्रको ( मुनिको ) रागद्वेष असंयम मद दुःख भय आदि विकारोभावोंको उत्पन्न न करे तथा [वाध्यायवृद्धिकरं तदेव देयमिति 1 तप स्वाध्याय ध्यान आदिका बढ़ानेवाला हो, ऐसा शुद्ध ( उत्तम । द्रव्य ही दानमें देना चाहिये । इसके प्रतिकूल फल देनेवाला द्रव्य कभी नहीं देना चाहिये यह श्रावकका कर्तव्य है- बुद्धिमानी है ॥ १७० ॥
भावार्थ -- देयद्रव्य अनेक प्रकारका होता है और वह निमित्त कारणरूप है, उसके निमित्तसे जीवों के परिणाम भी तरह-तरह के होते हैं अर्थात् अच्छे निमित्तसे अच्छे परिणाम होते हैं और बुरे