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शिक्षाप्रकरण
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जानबूझकर व्यवहारसे अभ्यासी उत्कृष्ट श्रावक ( ऐलक क्षुल्लक आर्यिका क्षुल्लिका ) के लिये भी शुद्ध आहार देने की बात लिखी है ऐसा समझना ताकि उद्दिष्टताका दूषण न लगे और अनुदिष्ट भोजन उन्हें प्राप्त हो, शेष विधिके लिये प्रतिबन्ध नहीं है, साधारण रूप हो सकती है विचार किया जावे | यह सब प्रतिपूजा है, जो हम पहिले लिख चुके हैं किम्बहुना ॥ १६७॥
आचार्य - आगे दाता द्वारा करने योग्य विधि ( नवधा भक्ति को बतलाते हैं ।
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संग्रहमुच्चस्थानं पादोदकमर्चनं प्रणामं च ।
वाक्कायमनः शुद्धि रेषेणशुद्धिश्च विधिमाहुः || १६८ ।।
पद्य
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आह्वान अरु उच्चस्थान, पादधोवना अन मी । नमोन अभी !" भोजन शुद्धि विधिसे करके नवधाभकि प्रकट करना । इस विधि से जो दान देत है, सद् गृहस्थ उसको कहना ||१६८ ॥
अन्वय अर्थ -- आचार्य कहते हैं कि [ संग्रहच्चस्थानं पादोदकं अनं प्रणामं ] संग्रह करना अर्थात् आदरपूर्वक पास में अपने घरपर बुलाना ( पड़गाहना आह्वान करना ), ऊँचा स्थान ( चीकी आदि) देना, पाँवोंको धोना, स्तुति या आरती करना, दंडक या नमस्कार करना, मनवचनकायको शुद्ध करना अर्थात् मनमें विकार या खोटे भाव न रखना, झूठवचन नहीं बोलना, शरीरको शुद्ध रखना, अभक्ष्यका त्याग करना, तथा भोजनको शुद्ध बनाना अर्थात् मर्यादित सामग्रोसे अपने खुदके लिये बनाना और वहीं निरुद्दिष्ट देना । यह विधि आहारदानकी हैं गणधरादि आचार्य कही है | परन्तु जो दाता ( गृहस्थ ) खुद हो बेसा नहीं करता है और सिर्फ वचनोंसे पैसा कहता है, वह पात्रदान देनेका अधिकारी नहीं है-( असल बात तो यह है ) | ऐसा करना सबसे बड़ा शिथिलाचार व पाप है, जिससे गृहस्थदाताको बहुत नुकसान होता है यह ध्यान रखना चाहिये, यही गुप्त पाप कहलाता है ।। १६८ ।।
भावार्थफलभावोंका लगता है, वचनों या शरीरकी क्रियाओंका नहीं लगता, यह नियम है। तब भाव शुद्ध हुए बिना अच्छा फल कैसे मिलेगा ? नहीं मिलेगा । फलतः भाव शुद्ध करनेके लिये पहिले निमित्तरूप बाह्य अशुद्ध चीजोंके उपयोग ( स्तेमाल ) करनेका त्याग कर देना चाहिये
१. आदरपूर्वक पास बुलाना ( पड़गाहना ) या प्रार्थना करना ।
२. पांव घोवना ।
३. आरती उतारना स्तुति पढ़ना ।
४. नमस्कार करना ।
५. भोजन शुद्धि करना अर्थात् शुद्ध भोजन है ( अपने लिये बनाया गया है ) ऐसा कहना ।
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