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पुरुषार्थसिपा
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अन्वय अर्थ --- आचार्य कहते हैं कि [ दातृगुणवता विधिना द्रव्यविशेषम्य भागः जातरू ] दाता के गुण सहित श्रावकका कर्त्तव्य है कि वह विधिपूर्वक ( नवयाभक्तिपूर्वक ) खासकर ( निश्चयसे) दिगम्बर वेषधारी मुनिको, और उपचारसे । व्यवहारसे) उत्कृष्ट श्रावकको भी अपना शुद्धद्रव्य या भोजन जो अपने लिये तयार किया गया हो ऐसा उद्दिष्ट दोष रहित ) भोजन, उसमेंसे कुछ हिस्सा | स्वपरानुग्रह हेतोः अवश्यं संध्या ] अपने और उनके लाभ या कल्याणके निमित्त दानमें अवश्य अवश्य देवे । बस, यही चौथा अतिथिसंविभाग ( वैयावृत्य ) कहलाता है || १६७ ।
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भावार्थ - (अतिथि संविभाग शिक्षाव्रत पालना सरल नहीं है बड़ा कठिन है, उसमें दाता श्रावकको अनेक तरहको सावधानी व शुद्धता रखनी पड़ती है यद्वातद्वा करनेका निषेध है । (१) पहिली और मुख्य सावधानी शुद्ध आहार तयार करनेकी है। वह शुद्ध आहार केवल आटा घो gest शुद्धि नहीं होता किन्तु वह शुद्ध तब होता है जब शुद्ध सामग्री से खुद अपने लिये हो बनाया गया हो - दूसरोंके इरादे या उद्देश्यले न बनाया गया हो, अन्यथा वह उदिष्ट होनेसे अशुद्ध या अग्राह्य हो जाता है, यह आचार्य कहते हैं । द्रव्यविशेषका यही अर्थ ( गायना ) है, उसके प्रतिकूल होना द्रव्यविशेष नहीं है ऐसा समझना । (२) दूसरी सावधानी दातार ( श्रावक ) को आगे कहे जानेवाले ७ गुण सहित होने की है । (३) तोसरी सावधानी नवधा भक्तिपूर्वक आहार दान देनेकी है । (४) चौथा सावधानी ऐसा आहार जातरूप ( दिगम्बर वेषधारी ) मुनि । उत्तमपात्र को हो देनेकी है ( मध्यम या जवन्य पात्रको देनेकी नहीं है ) (५) पाँचवीं सावधानी दाता और पात्रको लाभ पहुँचाने को है कि दातांको पुण्यबंध हो ( परोपकार हो और पात्रको संयम पालने में सहायता मिले, कारण कि संयोगों पर्याय में एकबार शुद्ध भोजनका मिलना अनिवार्य है उसके दिना परिणाम स्थिर नहीं रह सकते - विकारमय - चंचल हो जाते हैं जिससे आस्रव और बंध होता है इत्यादि । परन्तु वह विरक्तिपूर्वक तप बढ़ावनहेतु लेते हैं शरीर पोषण हेतु नहीं लेते यह विशेषता पाई जाती है अस्तु शिक्षाव्रत पालने की विधि पूर्वोक्त प्रकार है सरल नहीं है ऐसा समझना | और श्रावक गृहस्थके लिये जो भोगोपभोग या प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतको पालता है, अतिथि संविभागका करना अनिवार्य है क्योंकि उसके लिये आज्ञा है 'मुनिका भोजन देय फेर निज करहि महारे उस कर्त्तव्यको पूरा करना अत्यावश्यक है ( परस्पर संगति है ) विचार करना - श्रावक लोभ कषाय कम होती है, जिससे पापका बंध न होकर पुण्यका बंध होता है, पात्रोंको संतोष व शान्ति मिलती है। )
विशेषार्थ- हमने अपने अनुभवसे कुछ थोड़ा अर्थ श्लोकका बढ़ा दिया है । श्लोक में आचार्यका मत स्पष्ट जाहिर है कि अतिथि संविभाग शिक्षाव्रत पालनेवाले श्रावकको चाहिये कि a fafaपूर्वक ( नवत्रा सहित ) और सातगुण सहित दिगम्बरमुनि ( उत्तम पात्र को ही ऐसा शुद्ध ( अनुद्दिष्ट, जो अपने लिये ही बनाया गया ) आहार देवे इत्यादि । फलतः उत्कृष्ट श्रावकको को यह विधि और आशा नहीं है, उसको विधि भित्र प्रकारका है अतः दोनोंकी संगति नहीं बैठा लेना चाहिये अन्यथा आज्ञाविरुद्ध होगा यह कथन निश्वयका है। किन्तु हमने