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বৃষি कषायका उदय मौजूद रहता है। फिर भी योग और कषायोंका सिमट जाना अर्थात् कम हो जाना साधारण विशेषता नहीं है अपितु महान् विशेषता है। अतएव सामायिक अवश्य करना चाहिये । इस विषयमें स्वामिसमन्तभद्राचार्य महाराजका भी मत है ।
नोट-दिग्वतदेशव्रतधारीका भी अणुवत, इसी तरह महाव्रत जैसा हो जाता है यह लाभ समझना चाहिये ॥१५०।।
आगे आचार्य सामायिक शिक्षाक्तोका और भी दुसरा कर्तव्य बतलाते हैं । ( स्थिरताके लिये उपवास करना)।
सामायिकसंस्कार प्रतिदिनमारोपितं स्थिरीकर्तुम् । पक्षार्द्धयोईयोरपि कर्तव्योऽवश्यमुपवासः ॥१५॥
पद्य प्रसिदिन सामायिक करने से संस्कार उसका पड़ता। उसको दृढ़ करनेके खातिर, उपवासों को अपनाता ।। यह कर्तव्य प्रतीका होता, एक पक्षमें कर दो बार ।
उससे बहुत समय है मिलता, रद होता सामयिक संस्कार ॥१५॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि सामायिक शिक्षानीको [ प्रतिदिनमारोपित सामायिकसंस्कारं स्थिरीकसम्] प्रतिदिन दो बार नियमित रूपसे की जाने वाली सामायिफके संस्कारको स्थिर ( दृढ़ ) करनेके लिये [योरपि पक्षाईयोः अवश्यं उपवासः कर्तव्यः ] एक पक्ष में दो बार ( अष्टमी व चतुर्दशीको ) अवश्य हो उपवास धारण करना चाहिये। फलतः उस दिन अधिक समय मिलनेसे ( उपार्जन करना व खाना पीना बन्द हो जानेसे पर्याप्त समय तक बार-बार सामायिक की जा सकती है व फलस्वरूप उपयोग दृढ़ और स्थिर ( अटल ) रह सकता है यही संस्कारको दृढ़ताका उपाय है ।। १५१ ।।
१. सामयिके सारसम्भाः परिग्रहाः नैव सन्ति सर्वेऽपि ।
चेलोपसुष्टमुनिरिव गृही तदा माति यतिभावम् ॥१०२।। रम. श्रा० स्थविर समन्तभद्राचार्य । अर्थ--प्रत्याख्यानावरणकषायकी हीनावस्था ( मन्दता) होनेसे चारित्रमोहका परिणमन ( बल ) अत्यन्त
कमजोर हो जाता है अर्थात् उसमें निर्बलता आ जाती है अतएव वह अधिक जोर नहीं करता। फलतः पंचमगुणस्थानवाले सामासिक अणुवती के परिणाम अत्यन्त निर्मल हो जाते हैं । अतएव वह परिणामोंको अपेआसे महावती-उपसर्गकालीन मुनि जैसा प्रतीत होता है, यह आशय है। कोई भी कर्म हो मन्दोदयके समय कम शक्तिवाला हो जाता है, जिससे अधिक हानि या लाभ नहीं होता, मामूली रहता है । जब उदय होना बिलकुल मिट जाता है तब उसका अभाव माना जाता है यह नियम है। छठवें मुणस्थानमें प्रत्याख्यानावरणकषायका उदय नहीं होता अर्थात् अभाव हो जाता है।