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शिक्षाप्रकरण
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अन्वय अर्थ --- आचार्य कहते हैं कि [ श्रीमता निजमपेक्ष्य | बुद्धिमान् त्यागी विवेकी पुरुषको चाहिये (उनका कर्तव्य है) कि वे अपनी शक्ति ( पद व योग्यता ) को देख व सोचकर हो [ अत्रिस्वा आप भोगाः स्थाध्या: ] प्रयोजनभूत और पदके अनुकूल भोगोंका भी त्याग करें अर्थात् पद और शक्ति विरुद्ध कोई त्याग आदि कार्य न करें ( यह बंधन है ) इसके अतिरिक्त [ अत्याज्येष्वपि एकदिना निशा उपभोग्यता सीमा कार्या ] जो पदार्थ सेव्य अर्थात् उपभोग योग्य हों (प्रयोजनभूत व पदके अनुकूल हो ) उनमें से भी एक दिन या एक रात्रिका नियम या सीमाकर त्याग करें { अवान्तर त्याग या देशत्याग कहलाता है ) यह विधि है || १६४ ||
भावार्थ- स्याग यम और नियमरूपसे अर्थात् जीवनपर्यन्त और अल्पकालको किया जाता है । तदनुसार व्रती हमेशा प्रयोजनभूत ( अत्याज्य ) पदार्थोंमेंसे भी दिनरात घड़ी घंटा आदिका प्रण ( प्रतिज्ञा ) या नियम करके उन्हें छोड़ता है- ( ममत्व कम करता है) और ऐसा क्रमसे करतेकरते एक दिन वह बड़भागी मुनि आदि महत्त्वपूर्ण पदों को भी प्राप्त कर सकता है या कर लेता है कोई आश्चर्यको बाल नहीं है । आत्मामें अनन्त शक्ति है । जबतक अपनी अनंत शक्तिको जीव नहीं पहचानता ( जानता और उसको भूला रहता है, सभीतक दुर्गति होती रहती है और जब 1 उसका ज्ञान व श्रद्धान हो जाता है तभीसे उसका कल्याण होना शुरू हो जाता है जो शनैः शनैः बढ़ते-बढ़ते अन्तिम लक्ष्य ( सुख शान्तिका स्थान मोक्ष ) को प्राप्त कर लेता है । परन्तु उसका एकमात्र उपाय त्याग ही है अर्थात् वज्ञान एवं रागादिकका तथा आनुषंगिक रूपसे भोगोपभोगादिरूप परपदार्थों का त्याग करना हो अनिवार्य है और यही सनातन ( प्राचीन ) मार्ग है किम्बहुना | इसपर ध्यान देना कर्त्तव्य है अस्तु | जैसी जैसी शक्ति बढ़ती जाय तैसा तैसा त्याग
करता जाय ॥१६४॥
आचार्य कहते हैं कि व्रतीके लिये अपनी शक्तिका निरीक्षण ( संतुलन ) हर समय करना चाहिये यह उसका कर्त्तव्य है ।
पुनरपि पूर्वकृतायां समीक्ष्य तात्कालिक निजां शक्तिम् । सीमन्यन्तरसीमा प्रतिदिवसं भवति कर्त्तव्या ॥ १६५ ॥
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पद्म
यही है-- शक्ति निरीक्षण afतको देख त्यागयत
करने का | घरने का ॥
१. यहाँपर भवति एवं कर्त्तव्या दो क्रियाएं हैं, जिससे एक व्यर्थ होकर नियम आहिर करती है कि 'कर्त्तव्या एव' करना ही चाहिये अनिवार्य है ।
२. कार्य या कर्तव्य 1
३. वर्तमान ।
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