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शिक्षाप्रकरण अवसरों पर-उन चीजोंका भी अवश्य त्याग करे, जिनका उपयोग बह कर सकता है-वर्जनीय नहीं है यह विधि है। ये सब अशुद्ध जीवनको शुद्ध करने के उपाय हैं सी करना चाहिये किम्बहेना । व्रती विवेकियों का जीवन हमेशा सतर्कत्तापूर्ण एवं जागत जैसा रहता है, वह अपने नित्य कर्तव्य के पालनेमें प्रमादी या गाफिल नहीं होता, क्योंकि शिथिलाचार दोषाधायक माना गया है । यही बात कुन्दकुन्द महाराजने निश्चय व्यवहारके रूपमें कही है कि जो व्रती योगी ( मुनि ) व्यवहार ( अभूतार्थ ) में मस्त या कार्यशील नही होते हैं अर्थात् सोते हैं-व्यवहारको नहीं अपनाते हैं ( प्रमादी नहीं होते ) वे अपने कर्तव्य । निश्चय-भूतार्थ) का पालन भलीभाँति करते हैं और जो साधु व्यवहारमें जागते हैं अर्थात् दिनरात उसी में लगे रहते हैं वे अपना कर्तव्य पालन नहीं कर सकते अथवा मोक्षमार्गीकी साधनामें प्रमाद कर रहे हैं, निंद्य हैं । इत्यादि । १६५ ॥ आगे आचार्य उपसंहाररूप कथन करते हैं।
इति यः परिमितभोगैः सन्तुष्टस्त्यजाति बहुतरान् भोगान् । बहुतर-हिंसा-विरहासस्याहिंसा विशिष्टा स्यात् ।। १६६ ॥
भोगोंकी सीमा करके जो, संतोषी मित होता है। इसीलिए वह बहुभोगीका, सशग खुशीसे करता है। बहहिंसाका त्याग करेसे, विशेष अहिंसा पलती है।
यह सथ लाभ होत विरसीको नहीं प्रतिज्ञा टलती है ।। १६६ ॥ अन्यय अर्थ- आचार्य कहते हैं कि [ इति परिमितभोगैः सन्तुष्टः यः बहुससन् भोगान् त्यजति ] पूर्व में बतलाए हुए भोगोंका परिमाण ( सीमा ) करके जो प्रती जोव सन्तुष्ट हो जाता है अर्थात् अपनी इच्छाको रोक लेता है और फिर निःशल्य या आकांक्षा रहित होकर बहुतसे भोगोंका त्याग कर देता है [ तस्य बहुतरहिंसाविरहात विशिष्ट अहिंसा स्यात् ] उसके बहतसी या बहत प्रकारको हिंसाका त्याग ( अभाव ) हो जानेसे । मर्यादाके बाहिर सब छूट जाता है । विशेष रूपसे अहिंसाव्रत पलता है अर्थात् वह पूर्ण अहिंसावती जैसा लगता है अथवा उपचारसे महाव्रती कहलाता
'भावार्थ-यहाँ तक भोगोपभोगत्याग नामक तीसरे शिक्षावतका स्वरूप कहा गया है। उसके पालनेका क्रम और फल भी बताया गया है। अतएव उसको पालना ही चाहिये तभी आत्मकल्याण हो सकता है। संयोगों पर्याय में अनादि कालसे अविरत-अत्यागी या अबत दशा जीवकी रहती है, जिससे वह पृथक् नहीं हो पाता है और पृथक हुए बिना नती या एकाकी बन
१. जो भु-सो अवहारे सो जोई जग्गए सकम्मम्मि ।
जो जम्गदि ववहारे सो सुसो अप्पगे कज्जे ॥ ३१॥ मोक्षपाहड़