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शिक्षा प्रकरण
reg स्वरूप और निजश किस जान वस्तुका स्याग करें।
भोग और उपभोग रूप जो, देश अहिंसा धर्म घरे ॥ १६१ ॥
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अन्वय अर्थ --- आचार्य कहते हैं कि । विश्वात्रिरतस्य भोगोपभोगमूला हिंसा भवति नान्यतः ] देशant या अणुव्रत (त्रिरताविरत ) श्रावक जो हिंसा होती है वह सिर्फ भोग और उपभोग के द्वारा हो होती है, दूसरा कोई हिंसाका कारण नहीं है ऐसी स्थिति में [वस्तु स्वशक्तिमपि अभिगम्य ] इस मूल तथ्य ( निश्चयकी बात ) को और अपनो शक्तिको जानकर, उसके अनुसार [ तो अपि स्याज्य ] देशव्रतीको भोग और उपभोग दोनोंका त्याग करना चाहिये (करे । यह उस श्रवकका कर्त्तव्य है ।।१६१ ॥
भावार्थ- मूल बात ( वस्तुस्वरूप ) को समझकर और अपनी योग्यताको देखकर कार्य करनेसे ही लाभ होता है अन्यथा नहीं, वह नियम है। ऐसी स्थिति में बिना समझे और बिना कोई कार्य नहीं करना चाहिए फिर व्रत-संयमके मामले में तो खासकर दोनों बातोंको देखना अनिवार्य है अन्यथा भ्रष्ट हो जाना निश्चित है। इसो तथ्यका उल्लेख इस श्लोक में आचार्य महाराजले किया है । फलतः देशविरति श्रावकके हिंसा होनेके मूल साधन ( निमित्त ) भोगोपभोग और व्यापारादिक हैं. उनके करनेसे हिंसाका होना अवश्यंभावी है | अतएव उन्हीं व्यापारादिक और भोग उपभोगको शक्तिके अनुसार क्रमशः थोड़ा-थोड़ा त्यागना कर्तव्य है । एक साथ भावुकनाऐं लाकर त्याग कर देनेवाले शिपये हो जाते हैं । उस समय सिर्फ अपनी शक्ति और वीतरागता ही सहायता दे सकती है, परद्रव्य कुछ मदद नहीं कर सकती । परके भरोसे पर कार्य करना मूर्खता है । अन्तरंग या निश्चय कारण स्वकीय शक्ति है और बहिरंग या व्यवहारकारण, परद्रव्य हैं जो खाली निमित्तरूप है ब मानी जाती है । 'वस्तुत्व' या वस्तुका स्वभाव या सारकी बात, पेश्तर अपनो शक्तिको देखना है पश्चात् निमित्तोंको देखना है | कार्यसिद्धि अनेक कारणोंसे होती है एकसे नहीं खतएव निमित्त व उपादान दोनों सापेक्ष रहते हैं, उनमें मुख्य व गौणका भेद रहता है। इस तरह भोगोपभोगत्याग नामक शिक्षाव्रतका पालना अनिवार्य है । traint संयोगी पर्याय अनादि कालसे हो रही हैं । उसमें भोग उपभोगको चीजें | खाना पोना आदि ) तथा उनका उपयोग कराने वाली कषाएं एवं निमित्तरूप बाह्य पदार्थों व इन्द्रियां आदि सभी संयोगरूप मौजूद हैं और एक दूसरेमें निमित्तता करते हैं। इस तरह आत्मा इन सब faraiसे जकड़ा हुआ है अतएव व्यवहार दृष्टि या निमित्तदृष्टिसे संयोग से छूटने का उपाय दृश्यमान भोग व उपभोगका छोड़ना बतलाया गया है । लोकमें उसीको त्याग व धर्म कहा जाता है । यद्यपि यह पराश्रित होनेसे व्यवहार है व हेय भी है तथापि व्यवहारीजन उसको ही मुख्यता देते हैं। हाँ, प्रारम्भिक ( होन ) अवस्था में वह एक सहारारूप है अशुभसे बनाने वाला है अतएव उसको अपनाया जाता है परन्तु यह हमेशा अपनानेकी वस्तु नहीं है क्योंकि उसके रहते स्वतंत्रताका अनुभव ( स्वाद या सुख ) प्राप्त नहीं हो सकता जो वस्तुका स्वभाव है इत्यादि समझना चाहिये और योग्यता ( पद व स्वभाव शक्ति ) के अनुसार कार्य करना चाहिये । एकान्त दृष्टि रखना उचित नहीं होता !
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