________________
पुरुषार्थसिखापाय नोट--'वस्तुतत्त्वं' का अर्थ वस्तुका स्वरूप है। यहाँ पर वस्तु-हिंसा है क्योंकि उसीका प्रकरण चल रहा है, अतएव उसका स्वरूप 'आत्मपरिणामहिसन है' ऐसी स्थिति में प्रतीको सदैव यह कार्य करना चाहिये जिससे आरमाके परिणाम ( स्वभावभाव } न घाते जाय, तभी वह अहिराक बन सकता है। जहाँ संक्लेशता व रागादिक विकारीभाव हो वहीं हिंसा है और वह वर्जनीय है। फलतः हिंसा के मुख्य ( उपादान ) कारण पायरूप विकारीभाव हैं, उनको प्रथम त्यागना चाहिये और पहचात् निमित्त कारणोंको अर्थात् भोगोपभोग व उनके साधनों ( व्यापारादि पंचेन्द्रियके विषयों ) को त्यागना चाहिये। ऐसा यथार्थ समझने वाला जीव ही 'वस्तुस्वरूपका ज्ञाता' समझा जा सकता है अथति निश्चय और व्यवहारज्ञ ( उभयका ज्ञाता } ही सम्बग्ज्ञानी है यह निष्कर्ष है। किम्बहुना : पर देना चाहिये। यहि सात सागको मुख्यता है, अस्तु ।
त्यागी बनने के पहिले यह जानना जरूरी है कि त्याज्य (त्यागने योग्य ) क्या है ? जिसके त्यागने से हो त्यागी बना जा सकता है। धनधान्यादि ये सब तो परद्रव्य हैं, अतः उनके त्यागनेसे ही त्यागी कैसे कहा जा सकता है ? त्यागी तो तब कहा जा सकता है जन्न कि अपने निकट या पासको चीज छोड़ी जाय । विचार करनेपर अपने निकट-पासकी चीज 'कषाय' है विकारीभाव है), अतएव उसके छोड़नेपर ही त्यागी सच्चे अर्थमें हो सकता है, अन्यथा नहीं । बाह्य परवस्तु मात्रके ( धनधान्यादिक ) त्याग देनेसे त्यागी नहीं कहा जा सकता है, जो प्रत्यक्ष दूरवर्ती हैं। बिना कषायभाव के त्यागे जीव 'द्रव्यत्यागी' कहा जा सकता है 'भावत्यागी' नहीं, यह भेद है। फलतः पेदार भावत्याग ( कषाय व मिथ्यात्वका त्याग ) करना ही कर्तव्य है। पश्चात् परद्रथ्यको निमित्त जानकर उसका त्याग करना भी जरूरी है यह ध्यान रहे ।
निष्कर्ष-देखो परदस्तुका त्यास तो अनेक तरहसे होता है। कभी परवस्तु के अभाव होने पर उसका सेवन करना बन्द हो जाता है अर्थात् अपने आप त्याग हो जाता है कभी मूल्य बढ़. जाने से उसका त्याग हो जाता है ( खरीद शक्ति कम हो जानेसे नहीं खरीद सकते । कभी परद्रव्यसे कोई नुकसान हो जानेसे उसे त्याग दिया जाता है। कभी मतभेद या शत्रुता हो जाने पर सम्बन्ध विच्छेद कर दिया जाता है। कभी तीवकषायवश पदार्थ छोड़ दिया जाता है और कभी दबाउरे या भयके कारण परद्रव्य छोड़ दिया जाता है कभी लोभ लालच में पड़कर परद्रव्यका त्याग कर दिया जाता है, कभी राज्यके कायदोंके अनुसार विवश होकर छोड़ देना पड़ता है और कभी कषायको मन्दता होनेपर परद्रव्याका त्याग कर दिया जाता है और कभी वैराग्य आने पर या रागके छूटने पर परद्रव्यका त्याग कर दिया जाता है, ऐसी स्थिति में त्याग करना किसको माना जाय और सच्चा त्यागी किसे कहा जाय ? यह एक प्रश्न है इत्यादि । तत्वदृष्टिसे विचार करने पर एक हो निर्विवाद उत्तर हो सकता है और वह यह कि रागके छूटने पर या वैराग्यको उत्पन्न होने पर जो रागके साथ-साथ बाह्य पदार्थका त्याग किया जाता है, उसको असली त्याग कहते हैं, उसके करने में जरा भी क्लेश या संकोच नहीं होता निर्विकल्प हो त्याग दिया जाता है, पीछे उसका ख्याल था स्मरण भी नहीं आता मानो वह उसके पास था ही नहीं, इतनी निर्लेप दृष्टि
win.mmm.smr.me.mawwmanism
-:.-
Anm.......