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शिक्षासप्रकरण
उस त्यागोकी हो जाती है। परन्तु इसका मूलकारण कषायभावका छूट जाना { त्याग कर देना । ही है। फलतः जबतक कापाय नहीं छूटती, तबतक उपर्युक्त कारणोंसे परपदार्थका छूटना या स्थागना त्यागोका लक्षण नहीं है 1 जबतक बार-बार इच्छा हो, स्मरण आवे, लालसा रहे तबतक असली त्याग माना नहीं जा सकता। ऐसे ऊपरी ( बाहिरी ) त्यागको अज्ञानी लोक भले ही त्याग कहें परन्तु वह सत्य नहीं है किन्तु असत्य या अभूतार्थ है ऐसा समझना चाहिये। यही मूल भूल निकालना चाहिये। लोककी मान्यता पर निर्भर रहना नहीं चाहिये वह अलौकिक मान्यतासे भिन्न रहती है। लौकिक न्याय व अलौकिक न्यायमें बड़ा फरक रहता है यह सारांश है ।। १६१ ॥ आगे भोगोपनाग त्यागो शिक्षावतीका और भी कर्त्तव्य बताया जाता है ।
খে ভিক্ষা লা লা एकमपि प्रतिजिघांसुनिहन्त्यनंतान्यतस्ततोऽवश्यम् । करणीयमशेषाणां परिहरणमनन्तकोयानाम् ॥१६२।।
पद्य एक जीव घातनका इच्छुक जीव अनंत घातता है। है अमंत जीवोझी काया खंध एक कहलाता है। अत: खंथ थाषरका खाना छोड़ देत प्रतधारी है।
साधारण बह काय कहाते---खासे स्वेच्छाचारी है ।।१६२॥ अन्वय अर्थ आचार्य कहते हैं कि जो जीव ( गृहस्थधावक ) [ यतः एकमपि प्रतिनिधासुः ] एक भी साधारण वनस्पतिका खाने-पीने अर्थात् मोगोपभोग करने में उपयोग करता है अर्थात् और सब साधारण वनस्पतियों आदिका त्यागकर एकमात्र (गड़न्तादि) को खाता है वह [अनंतान निहन्ति ] अनन्त जीवोंका विधात ( हिंसा) करता है, कारण कि उस एक हो बनस्पतिके आश्रित अनंत साधारण जीव रहते हैं [ ततः अशेषाणां अनन्तकायानां परिहरणमघश्यमव करणीयम् ] इसलिये सम्पूर्ण अनन्तकाय ( साधारण ) वनस्पतिका त्याग अवश्य हो कर देना चाहिये, यह भोगोपभोगत्याग शिक्षाव्रतीका कर्तव्य है ।।१६२सा
भावार्थ-जिन जीवोंको वस्तुका स्वरूप तो मालम नहीं हो, और दे त्याग तपस्या करना चाहें तो ठीक तरहसे नहीं कर सकते बल्कि उल्टा मार्ग पकड़कर नुकसान उठाते हैं। फलतः उनको व्रत-अव्रत, हिंसा-अहिंसा, हेय-उपादेय, निश्चय-व्यवहार आदिका ज्ञान अवश्य होना चाहिये। निश्चयसे व्रतका सम्बन्ध आत्मासे है क्योंकि वह आत्माका धर्म या स्वभाव है। और अव्रतका सम्बन्ध भी अशुद्ध निश्चयसे आत्माके साथ हो है क्योंकि वह विभाव या विकारहा है।
१. साधारणकाय बनस्पलि। २. अवती-सीनकषायी।