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पुरुषार्थसिवापाथ स्थावर ( पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, बनस्पतिकाय ) जीवोंकी हिंसा अवश्य होती है, क्योंकि वायापदार्थ तो वे ही हैं जैसे अन्न जल शाक आदि पदार्थ। किन्तु [ भोग्योपभोगविरहान हिमाया: लेशोऽपि न भवति ] भोग व उपभोगका त्याग कर देनेसे रंचमात्र हिंसा नहीं होतो-अच जाती है यह नियम है। इसके सिवाय [ वागुप्ते: अनृतं नास्ति ] वचनगुप्तिके पालनेसे ( मौन धारण करनेसे ) झूठ नहीं बोला जाता ( झूठका त्याग हो जाता है) [ समस्तादानविरहतः स्सेयं नास्ति ] सब चीजोंका ग्रहण न होने से, चोरी नहीं होती ( त्याग हो जाता है) [ मैथुनभुचः असा न ] ब्रह्मचर्य धारण करनेसे, कुमोल सेवन नहीं होता (त्यागी हो जाता है ) [ अंगे अमूछस्य मंगोऽपि म ] शरीरसे ममत्व छोड़ देनेपर परिग्रह धारण नहीं करता { परिग्रह त्यागी हो जाता है। इस सरह अनायाा हिसा आदि पांगी पापोंका त्यागी प्रोषधोपवासके काल में अणुव्रतो श्रावक हो जाता है यह लाभ है ॥१५८।१५९।।
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भावार्थ- सभी व्रतों और व्रतियों-संयमियों का मुख्य लक्ष्य मोक्षको या उत्तम सूत्रको प्राप्ति करनेका रहता है। इसीलिये सामान्यतः व्यवहारसे उसको प्राप्तिका बाह्य उपाय प्रत संयमको
ण करना, घरद्वार, स्त्रीपूत्र धनधान्यादिका त्याग करना बताया गया है, और आचरणमें लाने का उपदेश दिया है। परन्तु यह सब व्यवहारनयसे साधन हैं, कारण कि वे सब प्रवृत्तिमय होनेसे शुभरागरूप हैं व पुण्यबंधका कारण हैं राग व बंधसे मोक्ष नहीं होता इत्यादि 1 निश्चयनयसे वीसरागता या निवृत्तिरूप अवस्था अथवा शुद्धोपयोगरूप अहिंसा ही मोक्ष व उत्तम सुखका साधन हैं फलतः जब तक वे नहीं होते तबतक मोक्ष नहीं होता असंभव है। परन्तु अनादिकालसे संसारी जीव व्यवहार दशामें (अशभ या शभ दशामें-अशद्धोपयोगमय ) रहते आये हैं, उन्हें कभी असली शुद्ध दनाका अनुभव हो नहीं हुआ है । अतएव करुणासागर आचार्य अनुभसे बचने के लिये अगत्या शुभके साथ ही संबंध स्थापित कराते हैं ऐसा संस्कार उनको पाड़ते हैं । इसके सिवाय यदि कदाचित् अयत्नसाध्य ( स्वतएन ) किसी जीवको अपनी शुद्ध दशाका अनुभव होता भी है तो वह अधिक समय तक स्थिर नहीं रहता-जल्दी ही बदल जाता है अर्थात् पुनः शुभ या अशुभमें उपयोग चला जाता है क्योंकि पुराने संस्कार पड़े हैं। और उसी में आनन्द मानकर उसोका अवलम्बन करता है । लेकिन यह सब ( शुभोपयोग व्रत संयमादिरूप । कषायको मन्दतासे होता है उस समय यदि कोई सम्यग्दृष्टि हो तो शुद्ध धर्मानुराग करके (अकामनिर्जरा करता है) जिसके फलस्वरूप उत्तम विमानवासो देवों में उत्पन्न होता है यह काचित् लाभ होता है अतएव वह शुभोपयोग भो उपादेय है। और यदि वह मन्दकषायवाला शुभोपयोगी मिथ्यावृष्टि हो तो उसके भी अकामनिर्जश होती है परन्तु वह अशुद्ध धर्मानुरागसे भवनात्रिक देवोंमें ही उत्पन्न होता है यह भेद है 1 बुद्धिपूर्वक सम्यग्दृष्टि जीव अभ्यास करते-करते पुराने संस्कार ( शुभोपयोगके )
७. जो बार-बार भोगनेमें आधे उसको उपभोग कहते हैं। जैसे स्त्री, शय्या, आसन, वस्त्र, सवारी गह्ना आदि। उक्स च-भुक्त्या परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तयः ।
उपभोगोऽमानवसनप्रभृतिः पाचेन्द्रियो विषमः ।।८३॥ रत्नकरण्डनायकाचार
2018
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