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शिक्षाप्रकरण
भावार्थ-व्रत पालने में उत्साह या रुचिका होना-व्रत धारण करनेके सन्मुद होना, व्रत कहलाता है। तैयारी करना या संरम्भ समारंभ करना । व्रतोंको प्रारम्भ कर देना अर्थात् शुभ क्रियाओं में प्रति करना । अशुभ क्रियाओंको बन्द कर देना इत्यादि सब व्रतके तीन-तीन रूप हैं--सभीमें लाभ होता है ऐसा समझना चाहिये ।। १५७ ।।
___ आचार्य यह बताते हैं कि प्रोषधोपवासके समय व्यापारादि नन्द कर देनेसे अहिंसा नहीं होतो अत: अहिंसावत पलता है उसी तरह भोजनपान आदि भोग्योपभागकी चीजोंका त्याग होने से स्थावर हिमा भी नहीं होती तथा असत्य बोलना, चोरी करना, मैथुन सेवन करना ( कुशील ) परिग्नह संचय करना ( म. ) ये सब पाप भो त्रिगुप्ति धारण करने से छूट जाते हैं अतएव उतने समय पूर्ण अहिंसाव्रत पलता है-यह लाभ होता है । फलतः वह कर्तव्य है ।
भोगोपभोगहेतोः स्थावरहिंसा भवेत् किलामीषाम् । भोगोषभोगविरहात् भवति न लेशोऽपि हिंसायाः ।। १५८॥ वाग्गुप्तेनास्त्यनृतं न समस्तादानावरहतः स्तेयम् । नाब्रह्म मैथुनमुचः संगो नाङ्गेऽप्यमूच्छंस्य ॥ १५९॥
भोग और उपभोग को जब थामर हिमा होती है। उनका स्थाग करेस रेखी हिंसा रंचन होती है । मौनालन करनेसे नहिं झूठे वचन निकलते है। कुछ भी ग्रहण म करनेसे वे चोरीसे भी असते हैं । ब्रह्मचर्यके पालमसे नहिं मैथुन सेवन होता है। अंग' ममस्य स्वागने से हाँ परिग्रह सारा खोता है। पंचपापका त्याग जु होता "प्रोषधचतके घरनले ।
और अहिंसा पूरण करता धन संयमकं पलनेसे || १५८ । ५.५९ ।। अन्य अर्थ---आचार्य कहते हैं कि देशवतियों ( अणुव्रत धारियों )के एवं अनलियोंके [ भोगोपभोगहलोः किल अमीषां स्थावरहिसा भवेत् ] भोग और उपभोगके सेवन ( निमित्त से, १. कारणसे । २. जीवोंके--देदावतियोंके । ३. देह या शरीर। ४. हटाता हैस छोड़ता है। ५. एक अकेले प्रोषधोपवास तक पालनेसे । . ६. जो एकबार भोगने ( सेवन करने ) में आये उसको भोग कहते है जैसे भोजन पान गम्ब पुष्पादिक बोले ।
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