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शिक्षावतप्रकरण
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पत्रात् स्वयं भोजन करना ( पेट पूजा ) तीसरा कर्त्तव्य है । उसके पश्चात् गृहस्थाश्रमका काम करना आदि है । वही आगे बतायेंगे | इलोक नं० १६७ में अतिथि संविभाग या वैयावृत्य बतलाया गया है जो प्रोषधोपवासी श्रावकको पारनाके दिन अवश्य करना चाहिये । गृहस्थ श्रावक धर्मके लिये परस्पर सम्बद्ध तीन काम हैं १ -पूजा ( देवकी) २ प्रतिपूजा ( गुरुकी ) ३ - उदरपूर्ति न्यायपूर्वक व्यापारादि करना, ये तीनों अनिवार्य है किम्बहुना ।। १५५ ।।
आचार्य आगे उपसंहाररूपसे प्रोषधोपवासका काल बताते हैं ।
उत्तन ततो विधिना नीत्वा दिवस द्वितीयरात्रिं च । अतिवाहयेत् अनादर्द्ध
तृतीय दिवस
पद्य
॥१६६
माफक वह
दिन अरु रात्रि बिताता है । बूजा दिन अह राशि पूर्ण कर अर्ध तृतीय सीजे दिन भी प्राप्त कर्म कर भोजन विधि एक बार ही भोजन लेकर eer समाप्त वह करता है ।।१५६ ।।
पकड़ता है ||
करता है ।
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अन्वय अर्थ आचार्य कहते हैं कि प्रोषधोपवासीका कर्तव्य है कि वह [ उन feat द्वितीपत्र व नोवा ] पूर्व कथित विधिके अनुसार डेढ़ दिन और दो रात्रिको विसावे ( पूरा करे ) [ सल: प्रयस्मात् तृतीयदस्य अर्ध व अवियेत् | उसके पश्चात् तीसरे दिनका आधा fire ( दोपहर तक ) भी बिना भोजन पानके बितावे पश्चात् विधिपूर्वक यथासंभव अतिथि संविभाग करके ( पात्रदान देकर प्रतिपूजा करके ) स्वयं भोजन करे और श्रीषधोपवास समान करे | यह कर्त्तव्य प्रोषधोपवासी श्राचकका है || १५६ ।।
भावार्थ -- उत्तम प्रोषधोपवास ठीक सोलह पहर तक विधिपूर्वक साधना करनेसे पूर्ण व सफल होता है, ऐसा समझकर उसमें गलती या ढोल ( शिथिलता ) नहीं करना चाहिये, यह उपसंहाररूप शिक्षा आचार्य दे रहे हैं अतः इसे मानना चाहिये | चरणानुयोगकी पद्धतिके अनुसार तसंयम पालनेकों जैसी विधि गुरुओं व आचार्योंने बतलाई है, उसीके अनुसार चलने से लाभ होता है । एवं लोकमें उसका विश्वास और मादर होता है, इतना ही नहीं दूसरे विवेकी लोग भी अनुकरण कर आत्मकल्याणके मार्ग लगते हैं, अतः उसमें प्रमाद नहीं करना चाहिये । इसके सिवाय अन्तरंग परिणामोंका पता बाह्य आवरणसे हो लगता है अतएव बाह्याचरणकी शुद्धता परिचायक है फलतः उसको शुद्ध व निर्दोष होना चाहिये | आचरणशुद्धिया योगशुद्धसे उपयोग ( आत्मा ) को शुद्धि मानी जाती है । अतएव लोकव्यवहार में सदाचारी बनना चाहिये किम्बहुना ।। १५६।।
१. द्वारापेक्षण और पापदान (गुरु- मुनिको प्रहारादि) देकर याने पतिपूजा करके पश्चात् यह भोजन करे ।