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पुरुषार्थसिद्धुपाय निर्जरा या मोक्ष का कारण है वह अज्ञानता है। कारण कि शुभोपयोगसे कभी मोक्ष नहीं हो सकता, असंभव है, यतः वह परिग्रह ( अन्तरंग ) है, बंधका कारण है । अतएव उनको ‘परम्परया' का सही अर्थ 'व्यवहार' समझना चाहिये । अर्थात् व्यवहारनयसे शुभोपयोग मोक्षका कारण है इत्यादि । हमेशा साक्षातका अर्थ निश्चय' और परंपराका अर्थ 'व्यवहार' समझना चाहिये । अतः कथंचित् वह भो उपादेय है क्रिम्बहुना 1 प्रारम्भ दशामें ऐसा ही होता है अस्तु ।
सामायिक करनेको विधि दंडकक्रिया द्वारा ( स्वामिकातिकेय ) बतलाते हैं ।
बाह्यकर्त्तव्य ( विधि) चार प्रकारका है। यथा--(मनवचनकायकी क्रिया) (१) नमस्कार (२) आवत्तं ( ३ ) शिरोमति ( ४ ) थोस्सामि ( स्तुतिपाठ )।
(१) मनमें सामायिक करने का अनुराग या संकल्प होना और उसके लिये आदरभक्ति व विनयरूप परिणामों का होना अंतरंग नमस्कार कहलाता है जो उल्लासरूप है। तथा बाहिरमें कायद्वारा मस्तक नवाना, हाथ जोड़ना, भूमि स्पर्श करना, बहिरंग नमस्कार कहलाता है ।
(२) हाथोंको अंगुलि को तीन बार घुमाना 'आवर्त' कहलाता है ( कायका व्यापार है) (३) मस्तकको झुकाना 'शिरोनसि' कहलाता है ( कायकी क्रिया है ) 1 ( ४ ) स्तुतिपाठ वगैरह पढ़ना थोस्सामि' कहलाता है ( वचनको क्रिया है ।।
शुद्धता वगैरहको कुछ और भी क्रियाएँ हैं । यथा---- ३) हाथपावमुहशुद्धि करना (२) पाँवोंका अन्तर रखना { ३ ) हाथकी याने अंगुलियोंको तथा गुरियोंकी माला रखना (४) शुद्धमंत्र पढ़ना (५) दृष्टि सौम्य रखना ( ६ ) बाहिर शब्द नहीं निकलना (७) स्थिरमुद्रा होना (८) एकान्त स्थान होना (९) निःशल्य होना ( मायाशल्य मिथ्याझाल्य निदानशल्यसे रहित होना चाहिये ), विकल्प या शल्यके रहते हुए एकचित्त या एकाग्रता नहीं हो सकती। (१०) योग्यदेश व क्षेत्र होना, जहाँ पर आकुलता न हो, डांस, मच्छर, खटमल, बिच्छू, सर्प, शेर, शिकारी, पशुपक्षी न होनीली या ठंडी या उष्ण जगह न हो, उपद्रव सहित स्थान न हो इत्यादि । ( ११ ) योग्यकाल हो-प्रातःकाल, मध्याह्न ( दोपहर ) संध्याकाल ! (१२) योग्य आसत होऊचीनीची कंकरीली न हो याने अचलयोग हो। । १३ ) योग्य मुद्रा हो, भयंकर रौद्राकार न हो, सौम्य मुद्रा हो । ( १४ ) मन शुद्ध हो-विकार रहित हो । ( १५ )
१. चतुरावतथितयश् चतुःप्रणामः स्थितो यथाजातः ।
सामयिक द्विनिपास्त्रियोगशुद्धस्विसंध्यमभिवन्धी ॥१३६॥ २० श्रा० स्वा० समन्तभद्राचार्य अर्थ--सामायिक करते ममय, मनयननकाय शुद्ध रखे, दो आसनोंमेंसे कोई एक आसन { खड्गासन या
पद्मासन ) घरे, परिग्रह रहित होवे, चारों दिशाओंमें तीन-तीन आवर्त करे, चार प्रणाम करे ( नमस्कार करें ) और तीनकाल सामायिक करे। यह विधि सामायिककी है। इसमें दो दंडक होते हैं । १) प्रारंभ (२) समाप्ति । अर्थात् जैसी क्रिया प्रारंभ में की जाय वैसी ही क्रिया समाप्तिम भी की जाय इत्यादि ।