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शिक्षा प्रकरण
अतएव आत्माका 'एकीभावको प्राप्त होना
कि
चाहियभार जार
) सामायिक शिक्षा के रूप में ( अभ्यासरूपमें ) और प्रतिमाके रूपमें दो तरह को जाती परन्तु उसमें प्रतिमारूपका अधिक महत्त्व है क्योंकि वह नियमबद्ध और निरतिचार होती है । water शिक्षा में नियमबद्ध और निरतिचार नहीं होती ऐसा भेद समझना चाहिये ।।१४८२ आचार्य -- सामायिकका काल और विधि बतलाते हैं। साथमें लाभ भी बतलाते हैं । रजनीदिवयोरन्ते तदवश्यं भावनीयमविचलितम् । इतरत्र पुनः समये न कृतं दोषाय तद्गुणाय कृतम् ॥ १४९ ॥
पद्य
दिन रात्रि के अन्त समय सामायिक करना नित है। अन्य समय करनेसे भी होता अवश आत्महित है || शिक्षा में नियम बार दो तीन बार नहिं होता है । प्रतिमा हैं तो भाका नियम, दोष नहिं लगता है ।। १४९||
अन्वय अर्थ -- आचार्य कहते हैं कि सामाधिकशिक्षावतवालेको [ रजनीदिवचरन्ते तत् अविअवश्यं भावमीयम् ] चाहिये कि वह प्रात:काल रात्रि के अन्त में ( ब्राह्ममुहूर्त में ) और दिन के अन्त में संध्या समय, इस तरह दो बार नियमसे सामायिक करे, चूके नहीं । और [ पुनः इतरत्र समवेत दोषाय कृतं न गुणाय कृतं भवति ] कदाचित् दोबारसे अधिक अनेक बार सामायिक की जाय तो गुण ( लाभ ) हो होता है, दोष ( हानि ) नहीं होता || १४९||
३.१३
भावार्थ(- इस श्लोक में शिक्षाव्रती के लिये सामायिकका काल बताया गया है किन्तु विधि नहीं बताई गई है कारण कि वह अनेक जगह बतलाई गई है, वैसी समझना । इसमें विशेषता वितकालकी ( सुबह शामको ) है, वह नहीं चूकना चाहिये, वह अनिवार्य है । अभ्यासरूपसे अनेक बार करने की भी विधि ( आज्ञा ) है किम्बहुना | अमृत कभी नुकसान नहीं देता । सामायिक Start एकत्वविभक्त' स्वरूप है । सामायिक यथार्थ में शुद्धोपयोगरूप वीतराग निर्विकल्प अवस्था है। लेकिन व्यवहारनयसे अर्हन्तपरमेष्ठीका नाम जपने रूप-शुभोपयोगवृत्तिको जो 'सामायिक' कहा जाता है यह भेद है । व्यवहारसामायिक - भक्ति आदि शुभरागरूप, सविकल्प होती है, जिससे पुण्यबंध होता है उससे सामायिकका लक्ष्य ( निर्जरा व मोक्षका होना ) पूरा नहीं होता इत्यादि । तथापि अपेक्षाकृत उससे भी लाभ होता है-अशुभोपयोगसे बचता है जो का कारण है और पुष्पबंध होता है । जो लोग यह कहते हैं कि वह शुभपयोग परम्परया
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करना चाहिये ।
अटल निवम रूप अवश्य ही करना चाहिए । अतिचार रहित होना चाहिये ।
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