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शिक्षामतप्रकरण वेश्यागमन करता है इत्यादि जिससे वह लोक व परलोक दोनों बिगाड़ लेता है। लोकमें बदनामी, अविश्वास आदि वेइज्जता होती है और परलोकमें नरकादि दुर्गति होती है किम्बहुना । अतएव अणुव्रतको रक्षाके लिये लुआका त्या वतीको कारमानी नानिये ।।१४६॥ आचार्य अन्तमें अनर्थोंका उपसंहाररूप त्याग बतलाते हैं।
एवंविधमपरमपि ज्ञात्वा सुंचत्यनर्थदण्डं यः । तस्यानिशमनवयं विजयमहिसाव्रतं लभते ।।१४७॥ जुआ समान और भी जो हों, उनको तुम अनर्थ समझो । उनका निशदिन स्याग करेस, इंश अदि मावत समझा ।। दोष रहित जल ग्रत होता है, समी अहिंसा होत विथ 1
इससे दोष रहित थत धरना, संसारी दुग्यका हो क्षय ||१४|| अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि यः पद्रविधमपरमपि अनदेई झात्वा सुचान ] जो अणुव्रती पुरुष जुआके ही समान अत्य । मदिरा पीना आदि) चीजोंको भी अनर्थदंड स्वरूप समझकर उनका त्याग कर देता है [ तस्य भान अनवयं अहिंसावत विजयं लभत ] उसका निर्दोष ( निरतिचार ) अहिमाणुगत निरन्तर विजयको प्राप्त करता है अर्थात् सफल होता है ।।१४।।
भावार्थ-निरतिचार अहिंसावत ( धर्म को पालनेबाला पुरुष हो संसार व उसके दुःखोकी जड़ मोहान्दि अष्टकर्मों को पृथक् करके ( क्षय करके ) सुखमय नित्य निरुपद्रव मोक्ष स्थानको प्राप्त हो सकता है दूसरा कोई ( कायर अन्नती जोन ) उसको प्राप्त नहीं कर सकता, यह तात्पर्य है। इसका कारण यह है कि अहिंसा वीतरागतारूप है' अतएव उसोसे कर्मबन्धन छूट सकता है, किन्तु सरागतासे कर्म बंधन नहीं छूटता उल्टा बंधता है । अतएव उस मार्ग ( उपाय )को कदापि नहीं अपनाना चाहिये वह उपादेय नहीं हो सकता। फलत: मोक्षका मार्ग एक ही है और वह अहिंसारूप या बीतरागतारूप शुद्ध निश्चय है। इसके सिवाय शुभरागको मोक्षमार्ग मानना व्यवहार है अभूतार्थ है, निश्चय या भूतार्थ नहीं है ऐसा जानना किम्बहुना ।
अथ शिक्षावतप्रकरण आगे आचार्य चार शिक्षाव्रतोंमेंसे (१) सामायिक शिक्षायतको बताते हैं।
रागद्वेषत्यागान्निखिलद्रव्येषु साम्यमवलम्ब्य ।
तत्वोपलब्धिमूल बहुशः सामायिक कार्यम् ॥१४८|| १. समताभाव-रागद्वेष रहित परिणाम ( पक्षपातरहित निर्विकल्प अवस्था )। २. आत्मस्वरूपकी प्राप्ति अनुभूति । ३. स्वरूपस्थिरता-स्वरूपलीनता... भेदभावरहित दशा-निर्विकल्पबुद्धि इत्यादि ।