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पुरुषार्थसिद्धमुपाय
fadnt स्वागो व्रती पुरुष अपना समय, स्वाध्याय-त्वचर्चा पूजा भक्ति संयम सामायिक आदि अच्छे कार्यों में व्यतीत करते हैं-समयका सदुयोग करते हैं, दुरुपयोग नहीं दिए कथा उपन्यास, कोकशास्त्र आदि नहीं पढ़ते सुनते व सुनाते हैं किम्बहुना । सदैव पापोंसे डरते रहना चाहिये और अहिंसाका ख्याल रखना चाहिये तथा यथासंभव वैसा कार्य ( बरताव ) भी करना चाहिये ।। १४५ ।।
इस तरह
नामों के अनुसार यहाँतक अनर्थदंडके पाँच भेद बतलाए गये हैं ।
विशेष प्रकरण ( विवरण )
आचार्य अर्थदंडके सिलसिले में ही, अनर्थकारी जुआ । द्यूत) आदिका भी त्याग करनेका उपदेश देते हैं, उससे बतरक्षा होती है वह अनर्थोकी जड़ है ।
सर्वानर्थप्रथमं मथनं शौचस्य स मायायाः । दूरात्परिहरणीयं चौर्यासत्यास्पदं धूर्तम् || १४६ ॥
पद्य
es अनर्थका मूल दगाबाजीका घर F खोरी झूल अन्याय, अशुचिका कूड़ाघर है || हिंसाका है स्रोत, खजाना व्यसनोंका है ऐसा जुआ लु छोड़ बती कर सब तेरा हैं | ११४६ ।।
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अन्वय अर्थ - आचार्य अनर्थदंडके सिलसिले में हो कहते हैं कि [ यस सर्वानर्धप्रथमं शौचस्व मथनं मायायाः सभ, चौर्यासत्यास्पदं ] जुआ ( व्यसन ) सभी अनर्थोका मुखिया ( जड़ या राजा ) है तथा निर्लोभताका भक्षक ( नाशक ) है, माया दगाबाजी छल कपटका घर । खान या खराब स्थान कूड़ा घर ) हैं, चोरी और झूठका अड्डा ( स्टेण्ड ) है अतएव [] दूरात्परिहरणीयम् ] अणुव्रतियोंको ( प्रारंभिक त्यागियोंको ) वह दुरसे ही छोड़ देना चाहिये, नहीं खेलना चाहिये || १४६॥ भावार्थ-व्यसनों या अनर्थोका राजा जुआ महापाप माना गया है। उसके होते सभी पाप हो जाते हैं । उसके बारेमें शास्त्रोंमें बड़ो-बड़ी कथाए हैं । अतएव उसका त्यागना भी व्रतीके लिये अनिवार्य है । परन्तु साधारणतः गृहस्थ अग्रती ) के लिये भी वह वर्जनीय है । कारण कि वह पापका कूड़ा घर है- जोवनको वरवाद कर देता है। जुआड़ी मद्य, मांस सेवन करने लगता है, चोरी करने लगता है, असत्य बोलता है, परस्त्रोसेवन करता है, शिकार खेलता है,
१. मिलता।
२. घर उत्पत्ति स्थान ।
३. जुआ व्यसन दाव लगाकर खेल खेलना, सट्टा आदि ।