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शिक्षाबलप्रकरण
बचन शुद्ध हो, शुद्ध पाठ व मंत्र बोला जाय । (१६ ) काध शुद्ध हो---अशुचिता ( मलादि ) से रहित हो इत्यादि साधनसामग्री अनुकूल रहते सामायिक ठोक बनती है। कार्यकी सिद्धि में अंतरंग व बहिरंग दोनों कारण होना चाहिये ।। १४९ ।। ) आचार्य सामायिक करनेसे जो विशेष लाभ होता है वह बताते हैं ।
मात्र उस समय महावता जैसा हो जाता है सामायिकश्रितानां समस्तसावधयोगपरिहारात् । भवति महानतमेषामुदयेऽपि चरित्रमोहस्य ॥१५॥
पद्य
सामायिक करनेवालेको श्रथ काम यह होता है। योगेकषाय सिमट जानेसे महाप्रती सम बनता है ॥ अपि सरितमोहका उसके उदय उस समय रहता है। मन्द उदय के हो जानेसे नहीं' सरीखा लगता है।१५०॥
अन्दय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि [ सामायिकश्रितानामषां चरिश्रमोहस्य उदयेऽधि ] सामायिक करनेवाले इन अणुव्रतियों के यद्यपि प्रत्याख्यानावरण आदि कषायनामक चारित्रमोहकमका उदय पाया जाता है तथापि [समस्तमानण्योगपरिहारात महायतं भवति ] बाहिर सम्पूर्ण आरंभ आदि सावधयोग ( कषायसहित क्रियाएँ योग ) उस समय बन्द हो जानेसे, उनका अणुद्रत, महावत जैसा मालूम पड़ने लगता है, यह विशेष लाभ होता है ॥१५०॥
भावार्थ----तत् ( मूल ) और तत्सदृश ( मूलसमान में बड़ा अन्तर है, फिर भी स्थूल दष्टिसे एकसा मालूम होता है। इसी न्याय ( विवक्षा ) से पांचवें मुणस्थानवाले सामायिक शिक्षाबत्तीका सामायिक अणुव्रत, साक्षात् महावत ( निश्चयसे महावत ) नहीं है क्योंकि महावतकी घातक ( आवरण करनेवाली ) प्रत्याख्यानावरण कपायका उस समय उदय पाया जाता है ( छठवें गुणस्थान में उसका अभाव होता है) तथापि सामायिक करते समय उसके बाहिरी आरम्भ परिग्रह प्रायः छूट जाते हैं । बन्द हो जाते हैं--कषायपूर्वक योगक्रियाएँ नहीं होती ) । अतएव चरणानुयोगकी पद्धति में वह महायनी सरीखा दृष्टिगोचर होता है। जैसे कि उपसर्ग कालका ( सन्चेल) मुनि हो, क्योंकि उस समय वह कुछ भी गमनागमनादि नहीं करता है, न कषाय करता है इत्यादि । परन्तु करणानुयोगके अनुसार बहू महानती नहीं है न हो सकता है, कारण कि उसके प्रत्याख्यानावरण
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१. पापाचरण' या कषाय सहित योमप्रवृत्ति । २. प्रत्यास्थानतनुत्वात् मन्दसराश्वरणमोहपरिणामाः ।
सत्त्वेन दुरवधासः महावताय प्रकल्प्यन्ते ॥७॥ रत्न श्रा स्थविर समन्तभद्राचार्य 1