________________
पुरुषार्थसिखापाथ आगे आचार्य प्रोषधोपवासके समयका और भी कर्तव्य बतलाते हैं।
पांच श्लोकों द्वारा श्रित्वा विविक्तवसतिं समस्तसावधयोगपरिहारान् । सर्वेन्द्रियार्थविरतः कायमनोवचनगुप्तिभिस्तिष्ठेत् ॥१५३॥
पापारंम त्याग करके सब निर्जन हो । मनवचकाय तीन योगों को रोक विषयका त्याग करे। हो निःशल्य व्रतधारण करके आतम ध्यान अवश्य धरे।
जिससे निर्भय निर्विकल्प हो, कर्मादिक सब्दी कतरे ।।१५।। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि सामायिक व्रती { प्रोषधोपवासी )का कर्तव्य है कि [समस्तसावायोगपरिहारास् विधिवसति श्रिवा ] सम्पूर्ण ऋषाययुक्त आरंभ परिग्रह ( पापाचरण) का त्याग करके प्रोषधोपवासके समय 'एकान्त स्थान को प्राप्त करे (जावे ) और [ सर्वेन्द्रियार्थविस्तः कायमनोवचनगुतिभिः तिष्ठेत् ] पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त था त्यस होता हुआ मनवचनकायको गुप्तिके साथ निवास करे अर्थात् निर्विकल्प होवे-सोनों पर विजय पाये और कर्मोको निर्जरा करे ॥१५३३॥
भावार्थ-प्रोषधोपवास, सामायिकका एक अंग है ( साधन है) अतएव उसके समय सभी अंगोपांग ठोक होना चाहिये। ब्यापार व अन्नजलादिका स्याग करना, एकान्त स्थानमें जाना, सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको छोड़ना, इत्यादि सब बाह्यसाधन सामायिक (चित्तकी एकाग्रता के
अर्थ-~-जिसमें कषाय-विषय-आहारका त्याग किया जाय वह अवस्था ( किया ) उपवासकी है और जिसमें कषायका त्याग न हो न विषयोंका त्याग हो खाली आहारका त्याग हो, उसको लंघन कहते हैं। सदुष्णे कांजिके शुद्धमा लाथ भुज्यतेऽशनम् ।। विजितेन्द्रियस्तपोर्थ यक्षाचारूल उभ्यतेऽत्र सः ।।
अर्थ-तल्कालका तैयार हुआ या उष्ण ( प्रासुक ) किया हुआ मठामें थोड़ा-सा भात आदि अन्न मिलाकर खाना वह भी सपको वृद्धि के लिए, उसको 'आचाम्ल' भोजन कहते हैं। उदराग्निशमनाय अरुचि सहित ।
आहारो भुज्यते बुग्धादिक्रपंचरसातिगः ।
दममायाक्षात्रूणां यः सा निविकसिमेला ॥ ___ अर्थ-दुग्ध या मोठा आदि ५ रसोंसे रहित सादा भोजन करना निर्विकार' भोजन कहलातो है। और वह भी इन्द्रियरूप शत्रुओंको वशमें करने के उद्देश्यसे हो-शरीर पोषणके लिये न हो इत्यादि ॥१५२॥ .
. :
..