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छठवाँ अध्याय
सप्तशील प्रकरण आचार्य व्रतों ( पाँच अणुव्रतों की रक्षा के लिये सात शोलों का अर्थात् ३ गुणत्रत ४ शिक्षा व्रतोंका वर्णन करते हैं और पालनेका उपदेश देते हैं।
परिधय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि । व्रतपालनाय तस्माच्छीलान्यपि पालनीयानि ॥१३६।।
पश्च
अणुवतीकी रक्षा करना जिनको अप्ति ही प्यारी है। सप्तशालको पालन करने वे ही अधिकारी है। सप्तशीलको पालन करके प्रतिरक्षा हो जाती है।
यथा नगरकी रक्षा देखो कोट खाईसे होती है ॥१३॥ अन्वय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि [ परिधर नगराणि हर ] जैसे कोट व खाई नगरको रक्षा करते हैं उसी तरह किलशलानि तानि पालनन्ति ] निश्चयसे सातशील अणुव्रतोंकी रक्षा करते हैं ( कुशीलका प्रवेश नहीं होने देते )। [तम्मात व्रतपालनाय शीलान्यपि पालनीयानि , इसलिये व्रतोंको रक्षाके लिये सप्तशोलोंका पालना भी अनिवार्य है ( अवश्य पालना चाहिये ) ।।१३६||
भावार्थ-मूलकी रक्षा (पूजीकी रक्षा करते हुए वृद्धि करना विवेकिया-समशदारोंका कर्तव्य है। इस न्यायसे जबतक मूलवतों ( अणुव्रतों की रक्षा न की जायगी तबतक आगे प्रगति { उन्नति । होना असम्भव है । ऐसी स्थिति में मूलन्नतोंको रक्षाका उपाय सातशीलोंका पालना ही है, उनके पालने से उनमें गड़बड़ी (दोष आदि ) नहीं हो सकती। जिस प्रकार शहर या नगरके चारों ओर कोट खाईके रहने से डाकू चोरोंका प्रवेश नहीं हो पाता व शहरको रक्षा रहती हैं तथा शहरकी उन्नति भो हो सकती है इसलिये शहरको रक्षा करना अनिवार्य है । तात्पर्य इसका यह है कि जब व्रतीके भोगोपभोगके बाह्यसाधन सीमित हो जायंगे तब उनके बाहिर प्रवेश करना या प्रवृत्ति करना स्वतः बन्द हो जावेगो, तब वहाँ संबंधी अपराध भी न होगा, और बिना अपराधके सजा भी न मिलेगी, एवं अपने क्षेत्रमें हो चित्तवृत्ति स्थिर हो जावेगो, फलतः व्रतको रक्षा बनी बनाई है, सुख व शान्ति, त्यागसे ही प्रकट होता है । गमनागमन, लेनदेन, खानपान, रहन सहन, आदि सब सोमित या परिमित हो जानेसे, आरम्भ परिग्रह कम हो जाता है, आकुलता चिन्ता कम हो जाती है, जिसका मतोआ संसारवास भी कम हो जाता है, तथा आत्माके गुणोंकी वृद्धि होती