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पुरुषार्थसियुपाय है इत्यादि सारांश है ! जबतक बाह्यपरिग्रहका सम्बन्ध { संयोग ) रहता है तबतक हिंसा आदि पापोंसे आत्माको रक्षा करना अनिवार्य है और सदाचारसे रहना भी महज जरूरी है यही सब शील पालनेका प्रयोजन है इत्यादि ॥१३६।३
नोट-परिधिकी उपमा-बारी या रोक लगानेसे है। अतएव अहिंसा' आदि सभी अणुवतोंको रक्षाका उपाय करना जरूरी है अर्थात अतिचारोंके न लगने देने से ही मूलवतकी रक्षा होना सम्भव है। नौ तरहसे अर्थात् नौ भंगोंसे व्रतका पालना अथवा रक्षा करना खंडित न होने देना ही शोल ( ममावभाव की रक्षा करना है। (ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षाके लिये निम्नलिखित बाद्यसाधनोंका त्याग करना चाहिये।
तिथलेवास, प्रेमरुचिनिरस्वन, देवरील भाखनमधु चैन । पूरवभोगकलि सर्चिन्तन, गरुय अहार लेत मित चैन ।। कर शुचितन श्रृंगार वनावत, तिथपर्यक मध्य सुख सैन ।
मन्मथकथा, उदरभर भोजन, ये नववाह जान मन जैन ||11) ज्ञानार्णवमें १० दोष टालना बतलाया है, इनसे उनमें कुछ अन्तर है । पर वे भी निषिद्ध हैं । ब्रह्मचर्य व्रतमें बाधक हैं गिनती लिखने से मर्यादा सिद्ध नहीं होती, अपितु एक तरहकी जाति मालूम होती है ऐसा समझना चाहिये । इयत्ता ( परिमाण )का निश्चय करना अल्पज्ञानियोंके वशकी बात नहीं है, अस्तु ॥१३६।।
___ आचार्य अणुव्रत्तोंकी रक्षाके लिये १ पहिला साधन ( भील ) (१} दिग्वतनामका बतलाते है जिसका दूसरा नाम 'गुणवत' है।
प्रविधाय सुप्रसिद्धैमर्यादा सर्वतोऽप्यभिज्ञानैः । प्राच्यादिभ्यो दिग्भ्यः कर्तव्या विरतिरविचलिता ॥१३७।।
दशों दिशाओं में प्रसिद्ध जो पर्वत आदि ठिकान हैं। मर्यादा उन तक ही करके आगे कभी न जाना है। ऐसा प्राय श्रियोगसे करके पूर्व दिशादिकका जना
अटल प्रतिज्ञा करनेपर ही दिग्व्रत धारण है भरमा ।।१३। अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि सर्वतोऽपि सुप्रसिदैः अभिज्ञानेः मादा प्रविधाय त्रियोग द्वारा सर्वत्र लोकप्रसिद्ध पर्वतादिकके ठिकानो ( चिह्नों )की मर्यादा { सीमा ) करके जो [प्राध्यादिभ्यः दिग्भ्यः अविचलिता विरसिः कर्तव्या ] पूर्वादिदिशाओं में आगे न बरतने ( प्रवृत्ति या
१, बिल या लिङ्ग ।