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पुरुषार्थसिद्धघुपाय
है तब वहाँ सम्बन्धी हिंसा आदि पाप कैसे लगेगा ? नहीं लग सकता, अतएव वहाँ पूर्ण अहिंसा व्रतका होना सम्भव है ।
वारसे
नोट - यद्यपि वह धावक अणुव्रती हो कहलाता है- महाश्रतो नहीं हो जाता, परन्तु उपतत्सदृश हो जाता है यह तात्पर्य है । अतएव दिग्वत धारण करना ही चाहिए उससे बड़ा लाभ होता है - हिंसा आदि पाँचों पाप नहीं होते, जिससे बन्ध होना भी बन्द हो जाता है, संसार कम हो जाता है इत्यादि । उक्त क्रमसे ही लक्ष्य पूर्ति होती है, किम्बहुना ।
आगे आचार्य देव ( सोमाके भीतर सीमा करना ) नामके गुणवतका भी उपदेश
देते हैं ।
तत्रापि परिमाणं ग्रामापणभवन पार्टकादीनाम् ।
प्रविधाय नियत्कालं करणीयं विरमण देशात् ॥ १३९॥
पद्म
free में भी कम करना देशविर कहलाता है। नियत काल कमी करना, बड़ सीमा में होता है । ग्राम बजार मकान मुहल्ला, सामिस इसमें होता है। आगे हिंसा पाप वचत है, धर्म अहिसा पलता है ।। १३२ ।।
अन्वय अर्थ -- आचार्य कहते हैं कि [ तत्रापि नियतकालं ] उस दिग्बतको सीमा के भीतर ही नियत काल (समय-समय पर सुविधानुसार ) [ प्रासादणभवन पाटकादीनां परिमाण प्रविधाय ] किसी गाँव या बाजार (हाट ) मकान (किला वगैरह ) मुहल्ला आदिको सोमा करके [ देशात् विरमणं करणीयम् ] उस सीमित क्षेत्रसे बाहर | आगे ) का त्याग कर देना चाहिये उसको देशव्रत कहते है || १३९||
भावार्थ- दिग्नत और देशव्रत दोनों में क्षेत्रका परिमाण ( सीमा-मर्यादा ) होता है परन्तु दितमें परिमाण जन्म पर्यन्तको क्रिया जाता है और देशव्रत में में परिमाण अल्प समयको सुविधानुसार किया जाता है, यह दोनोंमें भेद है । यह स क्षेत्रन्यास करनेका क्रम व अभ्यास है जो समयपर ( अन्तिम समय ) काम देता है । निःशल्य होनेका एवं रागादि छूटने का यही तरीका ( मेथड ) है | ऐसा करनेसे महान लाभ होता है। अणुव्रती - पंत्रमगुणस्थानवाला देशव्रती या संयमयी | fee श्रावक ऐसा हो हमेशा करता रहता है कि आज हम अमुक स्थान तक हो प्रवर्तन ( कारोवार या व्यापार करेंगे, आगे नहीं इत्यादि । तब इच्छाओंके सोमित हो जानेसे
१. बाजार ।
२. मुहल्ला ।
६. क्षेत्र -- परिमित क्षेत्रसे आगे और दिग्वत क्षेत्रके भीतर |